________________
160
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
श्वेताम्बर-परम्परा में शिशु को अन्न का आहार कराने के पश्चात् साधुओं को भी वह आहार देने का निर्देश किया गया है, साथ ही विधिकारक को भी यथोक्त अन्न, धन एवं वस्त्र, आदि देने के लिए कहा गया है।३०८ दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इस प्रकार का उल्लेख हमें देखने को नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में ब्राह्मणभोज२०६ का उल्लेख अवश्य मिलता है।
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में जिस प्रकार से इस संस्कार के लिए आवश्यक सामग्री का निर्देश किया है, वैसे विस्तृत निर्देश हमारी जानकारी में दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में नहीं मिलते हैं। उपसंहार -
इस संस्कार का तुलनात्मक-अध्ययन करने के पश्चात् जब हम इसके प्रयोजन एवं उपादेयता के सम्बन्ध में समीक्षात्मक-दृष्टि से विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि शिशु के शरीर के विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा माता के दुग्धपान कराने के दायित्व से निवृत्ति हेतु यह संस्कार किया जाता रहा है। अन्नप्राशन-संस्कार के माध्यम से उचित समय पर शिशु को अपनी माता के स्तनपान से क्रमशः पृथक् कर अन्न से अपना जीवन चलाने वाला बनाया जाता है। शिशु के हितार्थ जानकर छठवें माह में या उसके कुछ समय पश्चात् यह संस्कार करने का विधान इसलिए किया गया कि शिशु के दाँत आ जाने पर तथा उसकी पाचनक्षमता का विकास होने पर ही वह इस ठोस आहार को पचा सकता है। सामान्यतः, छठवें महीने में शिशु के दाँत आ जाने एवं उसकी पाचनक्षमता का विकास हो जाने के कारण ही इस संस्कार की अवधि जन्म से छठवें महीने में रखी गई, क्योंकि इससे पूर्व उसकी पाचनक्षमता विकसित न होने पर ठोस भोजन द्वारा शिशु रोगग्रस्त भी हो सकता है।
साथ ही, यह संस्कार माता के हित के लिए भी किया जाता था। चूँकि एक समय के बाद माता के दूध की मात्रा भी घटती जाती है तथा नया गर्भधारण भी हो सकता है, अतः माता की शक्ति का भी निरर्थक क्षय न हो, इसलिए भी यह संस्कार किया जाता रहा होगा- ऐसा हम मान सकते हैं। दूसरे, यह संस्कार माता के पुत्र के प्रति कर्त्तव्य को भी इंगित करता है, क्योंकि यदि माता एक समयावधि के पश्चात् उसे ठोस आहार प्रारम्भ नहीं करती है, तो शिशु की
३०८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथमविभाग), उदय-नवाँ, पृ.-१६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२. ६ देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-षष्ठ (चतुर्थ परिच्छेद), प्र.-११७, चौखम्भा विद्याभवन, पांचवाँ संस्करण १६६५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org