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साध्वी मोक्षरला श्री
कर्णवेध हेतु किन-किन सामग्रियों की आवश्यकता होती है, इसका भी प्रसंगवश मूल ग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। इसकी विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर के प्रथम खण्ड के दसवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन -
श्वेताम्बर-परम्परा में इस संस्कार का उल्लेख अर्द्धमागधी आगम राजप्रश्नीयसूत्र में मिलता है, किन्तु इस संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख हमें वहाँ नहीं मिलता है। आचारदिनकर एवं वैदिक-साहित्य में कर्णवेध नामक इस संस्कार को अपनी-अपनी कुल-परम्परा के अनुरूप किए जाने का उल्लेख है। इस कारण इस संस्कार के विधि-विधानों में भी कुछ अन्तर है।
आचारदिनकर में इस संस्कार के सम्बन्ध में ज्योतिष सम्बन्धी चर्चा भी की गई है। उसके अनुसार यह संस्कार उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, हस्त, रोहिणी, रेवती, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशीर्ष एवं पुष्य नक्षत्र में करना चाहिए। साथ ही इसमें उन्होंने विशिष्ट शुभ नक्षत्रों का भी उल्लेख किया है। कौन-कौनसे वारों एवं तिथियों में यह संस्कार किया जाना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने अन्य संस्कारों की भाँति ही शिशु के सूर्यबल एवं चन्द्रबल को देखकर ही यह संस्कार करने के लिए कहा है।
वैदिक-परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में इस संस्कार के मुहूर्त आदि का विस्तृत वर्णन न करके इतना ही उल्लेख किया गया है कि यह संस्कार शुक्लपक्ष में किसी शुभ दिन में सम्पन्न करना चाहिए।२२०
आचारदिनकर के अनुसार इस संस्कार के अन्तर्गत गृहस्थ गुरु सर्वप्रथम अमृतमंत्र द्वारा जल को अभिमंत्रित करते हैं और उस जल से सधवा स्त्रियाँ शिशु एवं उसकी माता को स्नान कराती हैं।
आचारदिनकर में यह स्नान कुलाचार के अनुसार विशेष तेल का मर्दन करके तीसरे, पाँचवें, नवें या ग्यारहवें दिन करने का निर्देश दिया गया है। इसके पश्चात् घर में पौष्टिककर्म करके एवं षष्ठीमाता को छोड़कर शेष आठ माताओं
1 राजप्रश्नीय सूत्र, सम्पादक-मधुकरमुनि, सूत्र-२८० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान), द्वितीय
संस्करण : १६६१ ३१ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-दसवाँ, पृ.-१७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२. ३० देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-षष्ठ (षष्ठ परिच्छेद), पृ.-१३२, चौखम्भा विद्या भवन,
पांचवाँ संस्करण १६६५
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