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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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होती है; उसे दूर करना आवश्यक होता है, क्योंकि जब तक यह शुद्धि नहीं होती है; तब तक व्यक्ति शुभ-अनुष्ठान, आदि नहीं कर सकता है। बाह्य-शारीरिक एवं स्थान-शुद्धि वह प्राथमिकता है, जो सभी धार्मिक-क्रियाओं के सम्पादन का अधिकार प्रदान करती है। किसी सपिण्ड के जन्म, आदि के अवसर पर अशुचि उत्पन्न होती है। यहाँ इस संस्कार में मात्र जन्म सम्बन्धी अशुचि के निवारण-विधि की ही चर्चा की गई है।
शिशु के जन्म के पश्चात् सभी परम्पराओं में एक कालावधि तक अशौच की स्थिति, अर्थात् सूतक मानते हैं। यह बात भिन्न है कि सूतक की कालस्थिति सभी परम्पराओं में भिन्न-भिन्न बताई गई है।
इस संस्कार के मूलभूत प्रयोजन के सम्बन्ध में जब हम विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि इसके पीछे देहशुद्धि एवं स्थानशुद्धि का लक्ष्य रहा होगा, क्योंकि प्रायः यह सर्वमान्य धारणा है कि यह शरीर अशुद्ध है, अशुचि का धाम है। इससे मलमूत्र, आदि अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ निकलती रहती हैं। शिशु के जन्म के समय भी माता की योनि से रक्तादि अशुचि निकलती है। जैन-परम्परा में भी शरीर को अशुचि का भण्डार माना है, उससे अनेक रूपों में अशुचि बाहर निकलती रहती है। प्रसव के पश्चात् की अशुचि का निवारण करने के विशिष्ट प्रयोजन को लेकर ही यह संस्कार किया जाता है।
___श्वेताम्बर-परम्परा में वर्धमानसूरि ने अपनी कुल-परम्परा के अनुसार यह संस्कार करने का निर्देश दिया है। चूंकि सूतक के सम्बन्ध में सबकी अपनी-अपनी धारणाएँ होती हैं, अतः कुल-परम्परा के अनुसार ही शुचिकर्म करने का निर्देश दिया गया है। कल्पसूत्र२६६ में ग्यारहवें दिन यह संस्कार करने का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर-परम्परा में इस संस्कार का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, इसे उन्होंने प्रियोद्भव नामक संस्कार के अन्तर्गत ही माना है। दिगम्बर-परम्परा में जन्म सम्बन्धी सूतक की अवधि १० दिन की बताई गई है।
वैदिक-परम्परा में भी प्रसव सम्बन्धी सतक तो स्वीकार किया गया है, परन्तु संस्कार के रूप में इसको विवेचित नहीं किया गया है। इस परम्परा में सूतक और उसके निवारण सम्बन्धी रचनाएँ बहुत हैं, परन्तु गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों
२६६ कल्पसूत्र, भद्रबाहुविरचित, अनु.-विनयसागर, पृ.-१५३, प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, द्वितीय संस्करण, सन्
१९८४ १७° जैन संस्कार विधि, नाथूलाल जैन (शास्त्री), अध्याय-२, पृ.-६, श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति
गोम्मटगिरी, इन्दौर, पांचवीं आवृत्ति-१६६८.
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