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म - संस्कार की विधि
जन्म
गर्भकाल के अपेक्षित मास- दिन आदि की कालावधि पूर्ण होने पर गृहस्थ-गुरु ज्योतिषी सहित शोरगुल से रहित एकान्त तथा स्त्रियों, बालकों, आदि के आवागमन से रहित एवं सूतिकागृह के अत्यन्त समीप के स्थल पर घटिका - पात्र रखकर सावधानीपूर्वक पंचपरमेष्ठी का जाप करे। पहले से ही तिथि, वार, आदि का विचार न करे।
बालक के होने पर गृहस्थ- गुरु ज्योतिषी को जन्म- समय का पूरा ज्ञान प्राप्त करने का निर्देश दे। उसके बाद बालक के पितृपक्ष के लोग नाल छिन्न होने से पूर्व गृहस्थ- गुरु एवं ज्योतिषी को दान-दक्षिणा दें, क्योंकि नाल छिन्न होने पर सूतक प्रारम्भ हो जाता है । तदनन्तर गृहस्थ- गुरु एवं ज्योतिषी, बालक तथा उसके परिजनों को आशीर्वाद प्रदान करें। उसके बाद ज्योतिषी जन्मलग्न बताकर अपने घर चला जाए। तत्पश्चात् गृहस्थ- गुरु जच्चा का सूतिकाकर्म करने हेतु कुल की वृद्धाओं एवं दाइओं को निर्देश दे तथा अन्य गृह में स्थित हो बालक के स्नानार्थ जल को सात बार मंत्र से अभिमंत्रित करे। उस अभिमंत्रित जल से कुलवृद्धाएँ बालक को स्नान कराएं। नाल का छेदन, आदि सब क्रियाएँ अपने कुलाचार के अनुरूप करें। बालक के रक्षण हेतु गृहस्थ- गुरु किस प्रकार से रक्षा-पोट्टलिका बनाए तथा उसे किस मंत्र से अभिमंत्रित करके शिशु के हाथ में बंधवाएँ - इसका भी प्रसंगवश इस विधि में उल्लेख हुआ है।
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
अन्त में विचक्षण व्यक्तियों को इस संस्कार हेतु किन-किन सामग्रियों का संग्रह करना चाहिए- इसका उल्लेख करते हुए यह भी उल्लेख किया है कि यदि शिशु का जन्म आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल-नक्षत्र में, गण्डान्त या भद्रा - नक्षत्र में हुआ हो, तो वह उसके पिता तथा उसके कुल के दुःख, दारिद्रय, शोक एवं मरण का कारण बनता है, अतः पिता व कुल के ज्येष्ठ लोगों को शान्तिकविधान किए बिना शिशु का मुख नहीं देखना चाहिए।
इस विधि की विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर अनुवाद को देखा जा सकता है।
के
तुलनात्मक - विवेचन
जन्मसंस्कार तीनों परम्पराओं में किए जाते हैं, अर्थात् तीनों ही परम्पराएँ इस संस्कार को स्वीकार करती हैं, यद्यपि नामों में भिन्नता है, जैसे
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