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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
आदि कार्य लोकाचार की दृष्टि से एवं धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होने के कारण इस संस्कार का महत्व बहुत अधिक रहा है, क्योंकि इसी संस्कार में प्रसव के पश्चात् दैहिकशुद्धि कैसे करें ? इसके निर्देश भी दिए गए हैं। इस प्रकार अन्य संस्कारों की भांति ही यह संस्कार भी अपने-आप में महत्वपूर्ण है।
सूर्य-चन्द्र-दर्शन-संस्कार
सूर्य-चन्द्र-दर्शन- संस्कार का स्वरूप
शिशु के विकासशील जीवन में उसका प्रत्येक पदन्यास या चरण महत्वपूर्ण होता है और माता-पिता तथा परिवारजनों के लिए हर्ष और आनंद का अवसर होता है, अतः उसे अवसरोचित धार्मिक विधि-विधानों के साथ मनाया जाता था। इस प्रकार के विधि-विधानों में एक सूर्य-चन्द्रदर्शन - संस्कार भी है, यह अपनी कुल परम्परा के अनुरूप किया जाता है।
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प्रथमतः, शिशु को बाहरी संसार से अवगत कराने के लिए सूर्य एवं चन्द्र का दर्शन कराया जाता था। दूसरे पूर्वकाल में शिशु का जीवन प्राकृतिक संकटों से सुरक्षित नहीं था, अतः शिशु की रक्षा के लिए देवताओं का अर्चन करके उनकी सहायता प्राप्त करने का यत्न किया जाता था। तीसरा कारण हम यह भी मान सकते हैं कि शिशु के उज्ज्वल भविष्य हेतु सूर्य-चन्द्र का दर्शन कराया जाता होगा, जिससे शिशु में सूर्य जैसी तेजस्विता एवं चन्द्रमा जैसी सौम्यता प्रकट हो । चौथा कारण यह भी है कि शिशु को संसार से परिचित होने के लिए प्रकाश आवश्यक है एवं सूर्य और चन्द्र प्रकाश के हेतु हैं, अतः उनका दर्शन कराना आवश्यक माना जाता होगा।
वास्तव में, इस संस्कार का मूलभूत हेतु बालक को प्रकाश से परिचित कराना है। सूर्य एवं चन्द्र का प्रकाश सृष्टि को गतिशील बनाने में सहायकरूप है। इनके सहारे ही संसार में दिन एवं रात्रि का क्रम अनवरत गति से चल रहा है। सूर्य एवं चन्द्र सृष्टि के अभिन्न अंग हैं, अतः शिशु का उनसे परिचय कराना
आवश्यक है।
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वर्धमानसूर के अनुसार श्वेताम्बर - र - परम्परा में सूर्य-चन्द्रदर्शन नामक यह संस्कार जन्म के पश्चात् तीसरे दिन कराया जाता है। दिगम्बर- परम्परा में इस संस्कार सम्बन्धी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, परन्तु इस संस्कार की भाँति ही दिगम्बर - परम्परा में प्रियोद्भव नामक क्रिया में जन्म से तीसरे दिन रात के समय
२३६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय चौथा, पृ. ११, निर्णय सागर मुद्रालय बॉम्बे, सन् १६२२
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