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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
होती है, किन्तु वहाँ क्षल्लकावस्था में गृहीत नियम यावत जीवन हेत होते हैं। वैदिक-परम्परा में इस नाम का कोई संस्कार देखने को नहीं मिलता, किन्तु वैदिक-परम्परा में प्रचलित वानप्रस्थाश्रम इस संस्कार के समतुल्य माना जा सकता
प्रव्रज्याविधि -
यह संस्कार जैन-परम्परा की एक अपनी धरोहर है। वैदिक-परम्परा में इस प्रकार के संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। हाँ, वैदिक-परम्परा में प्रचलित संन्यासाश्रम को इस संस्कार का आंशिक अनुकरण अवश्य माना जा सकता है। ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में वैदिक-परम्परा में यह संस्कार प्रचलित नहीं था। वैदिक-परम्परा में इस संस्कार का सर्वप्रथम उल्लेख औपनिषदिक-ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा संन्यास ग्रहण से होता है, फिर भी जैनश्रमण एवं वैदिक-संन्यास के आचार में अन्तर है। उपस्थापनाविधि -
आचारदिनकर में वर्णित इस संस्कार के माध्यम से महाव्रतों का ग्रहण करवाया जाता है तथा इसके साथ ही नंदीविधि सहित दशवैकालिकसूत्र एवं आवश्यकसूत्र के योगोद्वहन करवाए जाते हैं।१६० दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार जिनरूप क्रिया के रूप में सम्पन्न करवाया जाता है, किन्तु उसमें सप्तमंडली-योगोद्वहन-विधान देखने को नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में इस प्रकार के किसी संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। योगोद्वहनविधि -
आचारदिनकर में वर्णित यह संस्कार श्वेताम्बर-परम्परा की अपनी विशेषता है। इस संस्कार-विधि में साधक को विधिपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करवाया जाता है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में हमें इस नाम के किसी संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में मौनाध्ययनवृत्तित्वक्रिया को इस संस्कार का आंशिक अनुकरण माना जा सकता है।६२
१६० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बीसवाँ, पृ.-७६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. १६" आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु. डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२७६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ
संस्करण २०००. १६२ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु : डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५४, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ
संस्करण २०००.
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