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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन वाचनाग्रहणविधि -
इस संस्कार में वाचना ग्रहण करने के समय क्या विधि-विधान किए जाना चाहिए- इसका विवेचन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन सिद्धभक्ति एवं श्रुतभक्तिपूर्वक वाचना ग्रहण की जाती है, किन्तु वहाँ आचारदिनकर की भाँति वाचनाग्रहण से पूर्व एवं पश्चात् विधि-विधान करने के उल्लेख नहीं मिलते हैं। वैदिक-परम्परा में इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। वाचनानुज्ञाविधि -
वर्धमानसूरि ने वाचनाचार्य-पदस्थापना की विधि को भी संस्कार के रूप में माना है। दिगम्बर-परम्परा में वाचनाचार्य-पद का उल्लेख मिलता है। आदिपुराण में वर्णित गणोपग्रहणविधि के साथ हम इस संस्कार की तुलना कर सकते हैं।६३ वैदिक-परम्परा में हमें इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। उपाध्याय-पदस्थापन-विधि -
वर्धमानसूरि के अनुसार आचार्यपद के समान ही शुभ मुहूर्त आने पर यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में यद्यपि उपाध्याय-पद की व्यवस्था देखने को मिलती है तथा वहाँ इस संस्कार के विधि-विधानों के उल्लेख भी मिलते हैं। वैदिक-परम्परा के संन्यासाश्रम में इस पद की व्यवस्था देखने को नहीं मिलती है, किन्तु गृहस्थजीवन में अवश्य वहाँ इस पद की व्यवस्था है। आचार्य-पदस्थापन-विधि -
इस ग्रन्थ में आचार्य-पदस्थापन-विधि का भी उल्लेख किया गया है। वर्धमानसूरि के अनुसार गुणों से युक्त पात्र मिलने पर ही उसे आचार्य-पद पर स्थापित किया जाना चाहिए।१६५ दिगम्बर-परम्परा में भी इस विधि का उल्लेख स्व-गुरुस्थानवाप्ति-क्रिया के रूप में मिलता है। वैदिक-परम्परा में इस विधि को संस्कार के रूप में नहीं माना गया है।
१६३ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु : डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५५, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ
संस्करण २०००. ६४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चौबीसवाँ, पृ.-११२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. १६५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-पच्चीसवाँ, पृ.-११३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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