________________
118
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में इस संस्कार का अलग से कोई विवेचन नहीं मिलता है, यद्यपि उनके सुप्रीति०२ नामक संस्कार से इसकी तुलना की जा सकती है।
दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार गर्भ की पुष्टि और उत्तम सन्तान की कामना से गर्भाधान के पाँचवें माह में देवाराधन के साथ किया जाता है। यह संस्कार पुत्रोत्पत्ति हेतु ही किया जाता है- ऐसा उल्लेख दिगम्बर-ग्रन्थों में नहीं मिलता है, जबकि वैदिक-परम्परा में यह संस्कार तेजस्वी पुत्र की कामना से किया जाता है। यह संस्कार कब किया जाना चाहिए- इस सम्बन्ध में सबकी अलग-अलग धारणा है, कोई इसे द्वितीय मास में, तो कोई इसे सीमन्तोन्नयन-संस्कार के बाद, अर्थात् चौथे मास के पश्चात् यह संस्कार करने को कहता है। इसी प्रकार कितने ही विद्वान् पांचवें या आठवें मास के पश्चात् भी यह संस्कार करने के लिए कहते हैं, परन्तु आश्वलायनगृह्यसूत्र२०३ के अनुसार तीसरे महीने में यह संस्कार किया जाता है। इस प्रकार वैदिक-परम्परा में इस संस्कार के अनुष्ठान का समय गर्भ के द्वितीय से अष्टम मास तक माना गया है। संस्कारकर्ता -
श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार जैन-ब्राह्मण या क्षुल्लक द्वारा करवाया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार कौन करवाए- इसका स्पष्ट निर्देश आदिपुराण में मिलता है। उसके अनुसार जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गईं हैं, जो सफेद वस्त्र पहने हुए है, पवित्र यज्ञोपवीत धारण किए हुए है और जिसका चित्त आकुलता से रहित है- ऐसा द्विज मंत्रों द्वारा समस्त क्रियाएँ करे। सामान्यतया, जैन-ब्राह्मण ही यह संस्कार करवाते हैं। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार गर्भिणी स्त्री का पति या उसके अभाव में देवर यह संस्कार करवाता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रस्तुत की है - पुंसवनसंस्कार की विधि -
__ वर्धमानसूरि के अनुसार गर्भ के आठ मास व्यतीत हो जाने पर, सर्वदोहद पूर्ण हो जाने पर, गर्भस्थ शिशु के सम्पूर्ण अंग-उपांग पूर्णतः विकसित हो जाने पर शरीर के पूर्णीभाव एवं उसके प्रमोदरूप स्तनों में दूध की उत्पत्ति का
२०२ “आदिपुराण" श्री जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२४६, भारतीय
ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण : २००० । २०३ देखें - धर्मशास्त्र का इतिहास, (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८८ उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org