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साध्वी मोक्षरत्ना श्री प्रकार करें- इसका स्पष्ट निर्देश उसमें नहीं किया गया है, जबकि वर्धमानसूरि ने पूजाविधि का विस्तृत उल्लेख किया है।
संक्षेप में, तीनों ही परम्पराओं में इस संस्कार को स्वीकार किया गया है और सभी ने इसे संस्कारों में प्रथम स्थान दिया है। साथ ही इसे पति की साक्षी में ही करने का विधान किया है। भिन्नता की दृष्टि से देखा जाए, तो श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार गर्भाधान के पांच मास पूर्ण होने पर किया जाता है, जबकि दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में गर्भाधान हेतु ही यह क्रिया की जाती है। उपसंहार -
इस तुलनात्मक-विवेचन के पश्चात हम इस संस्कार की उपादेयता एवं आवश्यकता को लेकर कुछ समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत करना चाहते हैं। यह स्पष्ट है कि प्रवृत्तिप्रधान गृहिधर्म के परिपालन के लिए तथा वंश-परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए इस संस्कार की आवश्यकता है। यद्यपि संसार में बिना संस्कार के भी गर्भाधान और वंशवृद्धि होती देखी जाती है, किन्तु सुसंस्कारित सन्तान की प्राप्ति के लिए संस्कारक्रिया को प्राचीनकाल से ही आवश्यक माना गया है। प्राचीनकाल में अभिमन्यु, आदि की कथाओं के माध्यम से इस बात को स्पष्ट किया गया है कि गर्भस्थ-बालक पर भी बाह्य-परिस्थितियों के अच्छे-बुरे संस्कार पड़ते हैं। अब तो आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करने लगा है कि परिवेश का प्रभाव गर्भ पर पड़ता है और इस दृष्टि से गर्भाधान-संस्कार की उपादेयता स्पष्ट हो जाती है।
फिर भी समीक्षात्मक-दृष्टि से हमें यह बात समझ लेना चाहिए कि जहाँ वैदिक और दिगम्बर-परम्पराएँ इस संस्कार को गर्भस्थापन की दृष्टि से आवश्यक मानती हैं, वहीं श्वेताम्बर-परम्परा में गर्भ के संरक्षण और उसे संस्कारित करने के लिए इस संस्कार को आवश्यक माना गया है। आचार्य वर्धमानसूरि ने इस संस्कार के काल का जो निर्धारण किया है, वह वस्तुतः उनकी निवृत्तिप्रधान दृष्टि का परिचायक है। गर्भ के स्थापना निमित्त संस्कार करना और स्थापित गर्भ के संरक्षण और संस्कारित करने हेतु संस्कार करना - इन दोनों दृष्टिकोणों में महत् अन्तर है, इसे हमें समझना होगा। गर्भस्थापन हेतु संस्कार करने की जो बात दिगम्बर-परम्परा और विशेष रूप से हिन्दू-परम्परा में कही गई है, वह कहीं-न-कहीं प्रवृत्तिमार्ग की संपोषक है, जबकि वर्धमानसूरि द्वारा विरचित आचारदिनकर में गर्भाधान के पांच माह पश्चात् जो इस संस्कार का उल्लेख किया है, वह उनकी निवृत्तिमार्गी दृष्टि का परिचायक है और उसमें गर्भ के कल्याण की ही बात प्रमुख है। यहाँ सांसारिक-प्रवृत्तियों के पोषण का नहीं, अपितु उन्हें
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