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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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जल को पत्नी की नाक पर छिड़कता है, तब वह पत्नी को छूता है। संभोग करते समय "तू गन्धर्व विश्वासु का मुख हो"- कहता है। पुनः, वह पत्नी से कहता है"हे ! (पत्नी का नाम लेकर) मैं वीर्य डालता हूँ। जिस प्रकार तरकश में बाण घुसता है, उसी प्रकार एक नर भ्रूण तेरे गर्भाशय में प्रवेश करे और दस मास के उपरान्त एक पुरुष उत्पन्न हो।" पारस्करगृह्यसूत्र में भी यही विधि कही गई है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र तथा गोभिल ने भी संक्षेप में इसी विधि का निरूपण किया है, किन्तु उनके मन्त्रपाठ भिन्न हैं। भारद्वाजगृह्यसूत्र'१६ में एक विशेष बात का उल्लेख मिलता है कि रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नानोपरान्त श्वेत वस्त्र धारण करे, आभूषण पहने एवं योग्य ब्राह्मणों से बात करे - अन्य किसी व्यक्ति से बात न करे। इसी बात को वैखानस में इस प्रकार कहा गया है कि वह अंगराग का लेप करे, किसी नारी या शूद्र से बात न करे, पति को छोड़कर किसी अन्य को न देखे, क्योंकि स्नानोपरान्त वह जिसे देखेगी, उसी के समान सन्तान होगी - ऐसी मान्यता है। यही बात शंखस्मृति में भी उल्लेखित है। रजस्वला नारियाँ उस अवधि में जिन्हें देखती हैं, उन्हीं के गुण उनकी सन्तानों में आ जाते हैं, किन्तु इस प्रकार की चर्चा प्रायः श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में हमें कहीं देखने को नहीं मिलती है।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा में जिस प्रकार संस्कार के प्रारंभ में अर्हत्पूजन का विधान किया है, ठीक उसी प्रकार वैदिक-परम्परा में गोभिलस्मृति के अनुसार सभी संस्कारों के आरम्भ में गणाधीश, अर्थात् गणपति के साथ मातृकापूजन किए जाने का उल्लेख मिलता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं वैदिक-परम्परा में इस संस्कार को अपने-अपने ढंग से एवं अपनी-अपनी शैली में प्रस्तुत किया गया है। श्वेताम्बर-परम्परा में यह विधि कुछ विस्तृत एवं अधिक स्पष्ट रूप से मिलती है। इस संस्कार को कौनसे नक्षत्र, तिथि, वार, आदि में किया जाना चाहिए- इसका स्पष्ट निरूपण वर्धमानसूरि ने किया है। दिगम्बर-परम्परा में यह विधि संक्षिप्त रूप से कही गई है, जैसे - अरिहन्तदेव की पूजा का निर्देश करके भी वह पूजा किस
१६५ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास, (भाग प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८२, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८० १६६ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास, (भाग प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८२, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८० १६७ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास, (भाग प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८२, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८० १६६ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास, (भाग प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८६, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८०
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