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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 113 इसी प्रकार अन्य हिन्दू ग्रन्थों में भी कुछ महीनों, तिथियों, नक्षत्रों, आदि को गर्भाधान हेतु अशुभ माना गया है।
आचारदिनकर में इस संस्कार को करने से पूर्व पति की अनुमति एवं संस्कार-कार्य में पति की उपस्थिति को अनिवार्य बताया गया है, दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी इस संस्कार में पति की उपस्थिति को अनिवार्य बताया है।
इस संस्कार को किस प्रकार से किया जाना चाहिए, अर्थात् किस विधि से यह संस्कार करें, इस सम्बन्ध में दोनों ही परम्पराओं में बहुत भिन्नता है, जैसे- श्वेताम्बर-परम्परा के आचारदिनकर' नामक ग्रन्थ में इसकी विधि बताते हुए कहा गया है कि गर्भवती स्त्री एवं उसका पति सर्वप्रथम नख से शिखापर्यन्त पूर्ण स्नान करके, निज वर्ण के अनसार शुद्ध वस्त्रों को धारण करके, आदिनाथ परमात्मा की प्रतिमा की शास्त्रानुसार बृहत्स्नात्रविधि करे एवं उसके स्नात्र के जल को पवित्र पात्र में संचित करे।
उसके पश्चात् जिनप्रतिमा की अष्टद्रव्यों से गीत-वाजिंत्रों सहित शास्त्रोक्त पूजा करे। पूजा करने के पश्चात् गृहस्थ-गुरु सधवा स्त्रियों के हाथों से उस गर्भवती स्त्री को स्नात्र के जल से सिंचित कराए। तत्पश्चात् सर्व जलाशयों के जल को एकत्रित कर उसमें सहस्रमूल-चूर्ण डालकर शान्तिदेवी के मंत्र द्वारा उसे अभिमंत्रित करे या गर्भितस्तोत्र द्वारा सात बार उसे अभिमंत्रित करे। इस अभिमंत्रित जल से मंगलगीत गाती हुई पुत्रवान् सधवा स्त्रियाँ गर्भवती स्त्री को स्नान कराएं। उसके बाद गर्भवती उपयुक्त साजसज्जा कर पति के साथ वस्त्रांचल-ग्रन्थिबन्धन के लिए पति के वामपार्श्व में शुभ-आसन पर स्वस्तिक करके बैठे।
विधिकारक ग्रन्थियोजन-मंत्र द्वारा ग्रन्थिबन्धन करे। उसके बाद गृहस्थ-गुरु (विधिकारक) उनके सामने पादपीठ पर पद्मासन में बैठकर मणि, स्वर्ण, चांदी एवं ताम्र के पात्रों में परमात्मा के स्नात्रजल सहित तीर्थोदक को रखकर आर्य वेदमंत्र का उच्चारण करते हुए कुशाग्र से या पत्ते से सात बार गर्भिणी के सिर एवं शरीर को अभिसिंचित करे। उसके बाद पंचपरमेष्ठीमंत्र का स्मरण करते हुए दंपत्ति आसन से उठे एवं जिनप्रतिमा के समीप जाकर शक्रस्तव से जिनवंदन करे। यथाशक्ति परमात्मा के समक्ष फल, वस्त्र, स्वर्णमुद्रा, मणिरत्न, आदि चढ़ाए। उसके पश्चात् अपनी शक्ति के अनुरूप गृहस्थ-गुरु (विधिकारक)
१८७ धर्मशास्त्र का इतिहास, पांडुरंग वामन काणे, (भाग प्रथम), अध्याय-६, पृ.-१८१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान
लखनऊ, तृतीय संस्करण, १९८० * आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम खण्ड), उदय-प्रथम, पृ.-५, निर्णयसागर मुद्रालय बॉम्बे, सन् १६२२ ।
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