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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
उपासकाध्ययन भी कहते हैं। यह ग्रन्थ सात परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ में सम्यक्त्वदर्शन के स्वरूप एवं लक्षण की चर्चा करते हुए श्रावक के बारह व्रत, संलेखना-विधि एवं श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। इस कृति का रचनाकाल लगभग विक्रम की छठवीं से नवीं शती के मध्य माना जाता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार की भाँति ही अन्य ग्रन्थकारों द्वारा रचित श्रावकाचारों के भी उल्लेख मिलते हैं, यथा- वसुनंदीकृत श्रावकाचार, अमितगतिकृत श्रावकाचार, अमृतचन्द्रकृत श्रावकाचार (पुरुषार्थ-सिद्युपाय), धर्मसंग्रह-श्रावकाचार, गुणभूषणकृत श्रावकाचार, आदि। इन सभी श्रावकाचारों का उल्लेख श्रावकाचार-संग्रह, भाग-१ से ४ तक में मिलता है। ६. आराधनासार
इस कृति की रचना देवसेन ने लगभग वि.सं. ६६० में की थी। इस ग्रन्थ में ११५ पद्य हैं तथा इस ग्रन्थ की भाषा शौरसेनी-प्राकृत है। देवसेन विमलसेन के शिष्य थे- ऐसा उल्लेख इनकी रत्नकीर्ति की टीका में मिलता है। इस ग्रन्थ में भी समाधि के स्वरूप की चर्चा मिलती है। ७. आराधना
इस कृति के रचनाकार माधवसेन के शिष्य अमितगति हैं। यह शिवार्यकृत "आराहणा" का प्रायः संस्कृत पद्यात्मक अनुवाद ही है। इसमें भी हमें समाधिमरण सम्बन्धी प्रचुर सामग्री मिलती है। इस कृति का रचनाकाल लगभग विक्रम की ग्यारहवीं शती है। इस कृति का उल्लेख हमें जैन साहित्य का बृहत् इतिहास (भाग-४) में मिलता है। ८. प्रतिष्ठासार संग्रह
इस कृति के कर्ता वसुनन्दि हैं। ७०० श्लोक-परिमाण बाला यह ग्रन्थ छ: भागों में विभक्त है। इस कृति का रचनाकाल विक्रम की बारहवीं शती है। इस ग्रन्थ में दिगम्बर-परम्परा के अनुसार प्रतिष्ठा-विधि का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का उल्लेख हमें जैन-साहित्य का बृहत् इतिहास (भाग-४) में मिलता है। ६. प्रतिष्ठाकल्प
इस कृति के कर्ता माघनंदी हैं। नाम के अनुरूप इस ग्रन्थ में भी प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख किया गया है। इस कृति का रचनाकाल विक्रम
आराधनासार, अनु.: आर्यिका सुपार्श्वमतिजी, श्री दिगम्बर जैन मध्यलोक शोध संस्थान, सम्मेत शिखरजी, प्रथम संस्करण २००२
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