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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
१.
तेंतीसवें उदय में प्रतिष्ठाविधि का वर्णन है। इस उदय में मुख्य रूप से जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा, चैत्यप्रतिष्ठा, कलशप्रतिष्ठा, ध्वजप्रतिष्ठा, बिम्ब के परिकर की प्रतिष्ठा, देवीप्रतिष्ठा, क्षेत्रपालप्रतिष्ठा, गणेश आदि देवों की प्रतिष्ठा, सिद्धमूर्ति की प्रतिष्ठा, देवतावसर - समवसरण-प्रतिष्ठा, मंत्रपटप्रतिष्ठा, पितृमूर्तिप्रतिष्ठा, यतिमूर्तिप्रतिष्ठा, नवग्रहप्रतिष्ठा, चतुर्निकायदेवप्रतिष्ठा, गृहप्रतिष्ठा, वापी आदि जलाशयों की प्रतिष्ठा, वृक्षप्रतिष्ठा, अट्टालिकादि भवनप्रतिष्ठा, दुर्गप्रतिष्ठा एवं भूमि-अधिवासना-विधि का विवेचन है। इसी में सभी देवों के आह्वान, स्थापना और पूजा की विधि भी दी गई है, साथ ही इसमें बृहत्स्नात्रपूजा-विधि, बृहत् एवं लघुनंद्यावर्त्त आदि आलेखन की विधि, उनकी पूजाविधि, कंकणछोटन - विधि, अष्टमंगल - पूजाविधि एवं तत्सम्बन्धी पूजासामग्री हेतु ३६० क्रियाणकों की सूची का उल्लेख है।
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२.
चौतीसवें उदय में सभी प्रकार के पूजान्वित शान्तिकर्म की विधि तथा मूलादि नक्षत्रों एवं ग्रहों की शान्तिकविधि बताई गई है। इस प्रकरण में नक्षत्रों एवं ग्रहों की पूजा-विधि का उल्लेख किया गया है तथा प्रसंगवशात् तथा लोकाचार के अनुसार स्नानादि द्वारा की जाने वाली नक्षत्र - शान्तिक की विधि का भी वर्णन किया गया है।
३.
पैंतीसवें उदय में पौष्टिककर्म, आदि की विधि का विधान है। इस प्रकरण में विशेष रूप से पांच पीठों पर क्रमशः चौसठ इन्द्रों, दिक्पालों, क्षेत्रपाल सहित नौ ग्रहों, सोलह विद्यादेवियों एवं षट्द्रहदेवियों की स्थापना करने एवं उनकी पूजन विधि का उल्लेख हुआ है।
४.
छत्तीसवें उदय में बलिकर्म की विधि बताई गई है । किन-किन को किस-किस वस्तु की बलि प्रदान करें? इसका भी इसमें उल्लेख किया गया है।
५.
सैंतीसवें उदय में प्रायश्चित्तविधि का विवेचन किया गया है। यह विधि जीतकल्पभाष्य पर आधारित है। यह विधि साधु एवं गृहस्थ के जीवन में लगने वाले दोषों और उनकी शुद्धि हेतु किए जाने वाले प्रायश्चित्तों का उल्लेख करती है। इस उदय में प्रायश्चित्त के दस प्रकारों यथा - (१) आलोचना ( २ ) प्रतिक्रमण (३) उभय ( ४ ) विवेक ( ५ ) कायोत्सर्ग (६) तपयोग्य ( ७ ) छेदयोग्य (८) मूलयोग्य (६) अनवस्थाप्य एवं (१०) पारांचिक का भी उल्लेख किया गया है।
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