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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
६. अड़तीसवें उदय में आवश्यकविधि के अन्तर्गत षडावश्यकों यथा-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यानों के स्वरूप पर विचार किया गया है। इस उदय में दसविध प्रत्याख्यानों की भी योजना की गई है, साथ ही इस उदय के अन्तर्गत पाक्षिक-प्रतिक्रमणसूत्र, यति एवं श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्र, अर्थात् श्रमणसूत्र एवं वंदितुसूत्र की व्याख्या, शक्रस्तव, अर्हत् एवं सिद्ध परमात्मा की स्तुति आदि की व्याख्या की गई है। रात्रिक, दैवसिक, पाक्षिक एवं संवत्सरिक-प्रतिक्रमण की विधि का भी इस उदय में उल्लेख किया गया है। इसके साथ ही इस उदय में अतिव्यस्त राजा, मंत्री, आदि द्वारा की जाने वाली संक्षिप्त प्रतिक्रमण-विधि का भी उल्लेख किया गया है। ७. उनचालीसवें उदय में त्रिविध प्रकार के तपों की विधि विवेचित है। इस उदय में न केवल विविध प्रकार के तपों की विधि का वर्णन ही किया गया है, वरन् उन तपों की उद्यापनविधि के भी निर्देश दिए गए
८. चालीसवें उदय में पदारोपण का महत्व बताया गया है। इस उदय में व्रतियों (मुनियों), ब्राह्मणों और क्षत्रियों की शासन-व्यवस्था का
और सामन्त, मण्डलाधिकारी, मंत्री, आदि की पदस्थापना की विधि का विवेचन किया गया है, साथ ही वैश्य, शूद्रादि सहायकों की पदस्थिति का भी वर्णन है। इसके अतिरिक्त सभी वर्गों के नामों के साथ साधु-साध्वियों के नामकरण किस विधि से किए जाएं-इसका तथा प्रतिष्ठा, पदारोपण, आदि विधियों में उपयोगी मुद्राओं का भी उल्लेख किया गया है।
इस प्रकार इस ग्रन्थ के चालीस उदयों में विविध विषयों का निर्देश है, जिनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास यहाँ किया गया है। मेरे इस शोधप्रबन्ध हेतु इस ग्रन्थ का बहुत ही महत्व है, क्योंकि यह मेरे शोधप्रबन्ध का आधारभूत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का सर्वप्रथम प्रकाशन "खरतरगच्छ ग्रन्थमाला" से वर्षों पूर्व मूल रूप में पत्राकार में हुआ है। इस पर अभी तक किसी ने भी कोई शोधकार्य नहीं किया है और न सम्पूर्ण ग्रन्थ का अनुवाद कर इसे पुनः प्रकाशित ही किया है।
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