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१. स्वप्न- प्रदोष -
इस ग्रन्थ में चार उद्योत हैं। इन चारों ही उद्योत में स्वप्नविचार का उल्लेख किया गया है। इस कृति में १६२ श्लोक हैं, जो चार उद्योत में विभाजित हैं। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. प्रथम उद्योत -
इस उद्योत में ४४ श्लोक हैं। इन ४४ श्लोकों में ग्रन्थकार ने “दैवत-स्वप्नविचार” का प्रस्तुतिकरण किया है।
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
२. द्वितीय उद्योत -
इस उद्योत में (४५-८०) ३६ श्लोक हैं। इन ३६ श्लोकों में 'द्वासप्तति', अर्थात् बहत्तर महास्वप्नों का उल्लेख है ।
३. तृतीय उद्योत
इस उद्योत में (८०-११२ ) ४२ श्लोक हैं। इन ४२ श्लोकों में लेखक ने शुभस्वप्नों का प्रतिपादन किया है।
४. चौथा उद्योत -
इस उद्योत में ( १२३ - १६२ ) ४० श्लोक हैं। इन ४० श्लोकों में अशुभ स्वप्नों का उल्लेख किया गया है।
यह ग्रन्थ अप्रकाशित है । " जैन - साहित्य का बृहत् इतिहास" में इस कृति के रचनाकाल का उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भवतः, इस कृति के रचनाकार भी आचारदिनकर के कर्त्ता वर्धमानसूरि ही होना चाहिए, क्योंकि जहाँ तक हमारी जानकारी है, रुद्रपल्ली - शाखा में वर्धमानसूरि नाम के एक ही आचार्य हुए हैं।
प्रतिष्ठाविधि
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जिनरत्नकोश में वर्धमानसूरिकृत “प्रतिष्ठाविधि" नामक ग्रन्थ की सूचना मिलती है। सम्भावना यह हो सकती है कि आचारदिनकर के प्रतिष्ठा उदय को ही एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में " प्रतिष्ठाविधि" के नाम से जाना गया हो ।
१२ जिनरत्नकोश, भाग - १, पृ. ४५८.
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