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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
वर्धमानसूरि की जीवन-रेखा
वर्धमानसूरि के सांसारिक जीवन के बारे में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है, अतः वर्धमानसूरि के माता-पिता कौन थे? वे किस नगर में जन्मे थे? इस सम्बन्ध में कुछ भी कह पाना संभव नहीं है। ग्रन्थ- प्रशस्ति से भी हमें इस सम्बन्ध में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इनका जन्म रुद्रपल्ली - शाखा के प्रभावक्षेत्र में ही कहीं हुआ होगा । ग्रन्थ की प्रशस्ति में यह तो उल्लेख मिलता है कि प्रस्तुत कृति जालंधर नगर के नंदनवन गाँव में अनंतपाल राजा के राज्य में विक्रम संवत् १४६८ में पूर्ण हुई थी । जालंधर नगर सम्भवतः वर्तमान में पंजाब में जो जालंधर नगर है, वही हो सकता है। इस प्रकार ग्रन्थप्रशस्ति में जिस स्थान का उल्लेख है, उससे यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की रचना पंजाब में हुई है। इस प्रकार जालंधर (पंजाब) में ग्रन्थ - रचना करने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके विचरण और स्थिरता का क्षेत्र पंजाब और हरियाणा रहा होगा। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश एक समय तक खरतरगच्छीय-आचार्यों एवं यतियों के मुख्य प्रभावक्षेत्र रहे हैं। देराउर, जो वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है, दादा जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास - स्थल है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्त्ता का जन्मस्थल भी इसी क्षेत्र में कहीं रहा होगा - विशेष सम्भावना पंजाब या हरियाणा की हैं। इनके गुरु अभयदेवसूरि (तृतीय) द्वारा दीक्षित होने के सम्बन्ध में भी किसी प्रकार की कोई शंका नहीं की जा सकती है, किन्तु इनकी दीक्षा कब और कहाँ हुई, जानकारियों के अभाव में इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं हैं।
इस प्रकार इस कृति के कर्त्ता के कृतित्व का हम उपलब्ध जानकारियों से ही आंकलन कर सकते हैं।
वर्धमानसूरि का कृतित्व -
आचारदिनकर के कर्त्ता वर्धमानसूरि प्रखर विद्वान् आचार्य थे, इसमें कोई दो मत नहीं हैं। आचारदिनकर के अतिरिक्त उनकी अन्य कृति के सम्बन्ध में भी हमें उल्लेख मिलते हैं। "जिनरत्नकोश" एवं " जैन - साहित्य का बृहत् इतिहास" ( भाग - ५ ) के अनुसार " स्वप्नप्रदीप" अपर नाम " स्वप्नविचार", के कर्त्ता भी रुद्रपल्लीगच्छ के आचार्य वर्धमानसूरि ही हैं। इसके अतिरिक्त वर्धमानसूरि के नाम से अन्य कृतियों का भी उल्लेख मिलता है। इन कृतियों की चर्चा हम नीचे विस्तार से करेंगे
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(अ) जिनरत्नकोश, भाग-१, पृ. २६१, (ब) जैन - साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग - ५, पृ. २१०.
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