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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
प्रस्तुत कृति में वर्धमानसूरि ने जो अपनी गुरु-परम्परा दी है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे खरतरगच्छ की रुद्रपल्ली-शाखा से सम्बन्धित थे। रुद्रपल्ली-शाखा का उद्भव खरतरगच्छ से ही हुआ है। यही कारण है कि हमें रुद्रपल्ली-गच्छ की स्वतंत्र रूप से कोई पट्टावली नहीं मिलती है। इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री जिनशेखरसूरि थे, जो आचार्य जिनवल्लभसूरि के गुरुभ्राता थे। "खरतरगच्छ के बृहत इतिहास"१६ में जिनशेखरसरि को जिनवल्लभसूरि का शिष्य बताया है। जिनवल्लभसूरि के स्वर्गवास के बाद वह जिनदत्तसूरि के आज्ञानुवर्ती हो गए। किन्तु जिनदत्तसूरि ने रासलनन्दन को वि. स. १२०३ में अजमेर में दीक्षा देकर अल्पावस्था में ही वि. स. १२०५ वैशाख सुदी ६ को विक्रमपुर में आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नाम घोषित किया, अर्थात् उन्हें अपने पट्ट पर स्थापित किया। सम्भावना यह है कि इससे रुष्ट होकर जिनशेखरसूरि उनसे पृथक हो गए और उन्होंने रुद्रपल्ली-शाखा की स्थापना की और रुद्रपल्ली को ही अपना विचरण-केन्द्र बना लिया। रुद्रपल्ली-शाखा का उद्भव वस्तुतः लखनऊ और अयोध्या के मध्यवर्ती रुद्रपल्ली नामक नगर में हुआ और इसीलिए इसका नाम रुद्रपल्ली पड़ा। वर्तमान में भी यह स्थान रूदौली के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है, कि रुद्रपल्ली-शाखा स्वतंत्र गच्छ न होकर खरतरगच्छ का ही एक विभाग था। खरतरगच्छ-परम्परा में अभयदेवसूरि तीन हुए तथा वर्धमानसूरि दो हुए, किन्तु ग्रन्थ-प्रशस्ति के अनुसार प्रस्तुत कृति के कर्ता वर्धमानसूरि (द्वितीय) अभयदेवसूरि (तृतीय) के शिष्य ही हैं। यह तो इस कृति के कर्ता के सम्बन्ध में सामान्य चर्चा हुईं अब हम उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रस्तुत करना चाहते हैं।
वर्धमानसूरि के व्यक्तित्व का परिचय वस्तुतः उनकी कृति आचारदिनकर से ही हो जाता है। संस्कारों को इस प्रकार वही व्यक्ति निरूपित कर सकता है, जो इसके महत्व एवं गूढ़ता को समझ सकता हो। वस्तुतः, इस कृति में उन्होंने इतनी सहजता एवं सरलता से गृहस्थ एवं मुनि-जीवन के आवश्यक संस्कारों का प्रणयन किया है, जिससे ऐसा लगता है कि वे स्वयं इन संस्कारों के विधि-विधान के ज्ञाता थे। उनके गृहस्थ-जीवन के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनकी रचना, उनकी गुरु-परम्परा एवं उनके धर्म-परिवार से हम उनके व्यक्तित्व का आंकलन कर सकते हैं। उनकी परम्परा में अनेक विद्वानाचार्य हुए हैं। साहित्यिक-दृष्टि से रुद्रपल्ली-शाखा के आचार्यों द्वारा अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। अभयदेवसूरि (द्वितीय) द्वारा “जयन्तविजय महाकाव्य" वि. स.
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खरतरगच्छ का बृहत् इतिहास, महोपाध्याय विनयसागर, पृ.-२६१, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २००४.
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