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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
टीकाएँ
___ अभयदेवसूरि ने वि.सं.-११२४ में एक वृत्ति लिखी है। हरिभद्रसूरि ने इस पर टीका लिखी है- ऐसा जिनरत्नकोश (पृ.-२३१) में उल्लेख है। इस पर एक अज्ञात टीका भी है।
वीरगणि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के शिष्य यशोदेव ने भी पहले पंचाशक पर जैन-महाराष्ट्री में वि.सं.-११७२ में एक चूर्णि लिखी थी, जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है। इस चूर्णि में सामाचारी के विषयों का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें "तुलादण्ड न्याय" का उल्लेख भी है। पंचवस्तुक ग्रन्थ
पंचवस्तुक नामक यह कृति आचार्य हरिभद्रसूरि की है। यह कृति जैन-महाराष्ट्री प्राकृत-भाषा में गुम्फित है। इसमें कुल १७१४ पद्य हैं। इस कृति का रचनाकाल परम्परागत धारणा के अनुसार छठवीं शती का उत्तरार्द्ध है, किन्तु विद्वज्जन इस कृति का रचनाकाल आठवीं शती का उत्तरार्द्ध मानते हैं।
जैसा कि इस ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ में पाँच वस्तुओं, अर्थात् मुनि-जीवन से सम्बन्धित पाँच क्रियाओं का विवेचन है। इस ग्रन्थ में श्रमण जीवन के जन्म (दीक्षा) से लेकर कालधर्म (संलेखना) तक की समग्र चर्चा का पाँच अधिकारों में विवेचन किया गया है।
___यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैनमुनि-आचार से सम्बन्धित है। ग्रन्थकार ने इसे निम्न पाँच अधिकारों में विभाजित किया है(प्रथम) प्रव्रज्या-अधिकार
इस अधिकार के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं। इस अधिकार में दीक्षा सम्बन्धी विधि-विधान दिए गए हैं। (द्वितीय) दैनिकचर्या-अधिकार
इस नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं। यह अधिकार मुनिजीवन के दैनिक क्रियाकलापों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है।
पंचवस्तुक ग्रंथ : अनु.: राजशेखर सूरिश्वरजी, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, हिन्दुस्तान मिल्स स्टोर्स ४८१, गनी अपार्टमेंट, मुंबई-आगरा रोड़, भिवंडी, द्वितीय आवृत्ति.
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