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साध्वी मोक्षरला श्री
(तृतीय ) उपस्थापना-विधि-अधिकार
प्रस्तुत महाव्रतारोपण-विधि में ३२१ पद्य हैं। इस अधिकार में बड़ी दीक्षा, अर्थात् महाव्रतारोपण-विधि, आदि का विवेचन हुआ है। (चतुर्थ) अनुयोग-गणानुज्ञा-विधि-अधिकार
इस अधिकार में ४३४ गाथाएँ हैं, जिनमें मुख्यतः आचार्य-पदस्थापना, गण-अनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन, आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा है। (पंचम) संलेखना-विधि-अधिकार
इस अधिकार में संलेखना सम्बन्धी विधि-विधान दिए गए हैं। इसमें ३५० गाथाएँ हैं। संलेखना के अतिरिक्त इस अधिकार में मुनि-आचार सम्बन्धी अन्य विषयों की चर्चा की गई है।
अन्त में ग्रन्थ-रचना का हेतु एवं गाथाओं का परिमाण बताते हुए ग्रन्थ की पूर्णाहुति की गई है। पंचवस्तुक-टीका
इस कृति की ५०५० श्लोक-परिमाण 'शिष्यहिता' नामक स्वोपज्ञटीका भी मिलती है। न्यायाचार्य यशोविजयजी ने मार्गविशुद्धि नाम की कृति पंचवत्थुक के आधार पर लिखी है। उन्होंने प्रतिमाशतक के श्लोक ६७ की स्वोपज्ञटीका में थयपरिण्णा को उद्धृत करके उसका स्पष्टीकरण किया है। श्रावक-प्रज्ञप्ति
यह कृति जैन-महाराष्ट्री में रचित है। ४०५ कारिका की यह कृति प्रशमरति आदि के रचयिता उमास्वाती की है- ऐसा कई हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में उल्लेख आता है, किन्तु विद्वानों के अनुसार यह हरिभद्रसूरि की कृति मानी जाती है। यह बात पंचाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति, लावण्यसूरिकृत द्रव्यसप्तति, आदि के उल्लेखों से ज्ञात होती है। इस कृति का रचनाकाल विक्रम की आठवीं शती होगा- ऐसा हम मान सकते हैं। इसमें श्रावक के बारह व्रत तथा श्रावक की सामाचारी का उल्लेख है। आचारदिनकर में वर्णित व्रतारोपण-संस्कार सम्बन्धी कुछ विषयों की चर्चा हमें इस ग्रन्थ में मिलती है। इस कृति का उल्लेख हमें जैन-साहित्य का बृहत् इतिहास (भाग-४) में मिलता है।
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