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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
उनचालीसवें प्रकरण में तीर्थयात्रा की विधि का निरूपण है। चालीसवें प्रकरण में- तिथि की विधि का उल्लेख है। एकतालीसवें प्रकरण में- अंगविद्या - सिद्धि की विधि का कथन है ।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर इन द्वारों में वर्णित विषयों के तीन विभाग किए जा सकते हैं। १ से १२ द्वारों में मुख्यरूप से श्रावक सम्बन्धी विधि-विधान का, १३ से २६ तक के द्वारों में मुख्यरूप से साधु सम्बन्धी विधि-विधान का तथा ३० से ४१ तक के द्वारों में सामान्य रूप से श्रावक एवं साधु सम्बन्धी विधि-विधान का उल्लेख है।
इन ४१ द्वारों में से कितने ही द्वारों के उपविषय विषयानुक्रम में बताए गए हैं। प्रस्तुत कृति में कई रचनाएँ समग्रतः अथवा अंशतः संगृहीत भी की गई हैं। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के विवेच्य ग्रन्थ आचारदिनकर के लिए भी यह कृति आधारभूत रही है और लगभग इसके १०० वर्ष पूर्व निर्मित हुई है।
श्राद्धजीतकल्प -
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यह कृति देवेन्द्रसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि ने वि.स. १३७५ में लिखी है। इसमें श्रावकों की प्रवृत्तियों का विचार किया गया है।
सामाचारी
१०५
यह कृति तिलकाचार्य द्वारा विरचित है। यह ग्रन्थ मुख्यतः संस्कृत गद्यों में निबद्ध है। ये पूर्णिमागच्छीय ( आगमिकगच्छ ) चन्द्रप्रभसूरि के वंशज और शिष्यप्रभ के शिष्य थे। इस ग्रन्थ का श्लोक - परिमाण १४२१ है । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरणरूप एक श्लोक तथा अन्त में प्रशस्तिरूप सात श्लोक हैं। पहले श्लोक में सम्यग्दर्शन, नंदी, इत्यादि विधिरूप सामाचारी का कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है। इस ग्रन्थ की विषय-वस्तु को ग्रन्थकार ने निम्न ३७ अधिकारों में विभक्त किया है
प्रथम अधिकार में देशविरतिसम्यक्त्व आरोपण, नंदी की विधि का उल्लेख
द्वितीय अधिकार में केवल देशविरति नंदी की विधि उल्लेखित है।
१०५ सामाचारी, तिलकाचार्य विरचित, शेठ डाह्याभाई मोकमचंद, पांजरा पोल, अहमदाबाद, वि. स. १६६०.
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