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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
यह कृति अप्रकाशित है। कृति का रचनाकाल हमें अनुपलब्ध है।
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विधिमार्गप्रपा
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यह कृति जिनप्रभसूरि ने प्रायः जैन - महाराष्ट्री में रची है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि.स. - १३६३ माना जाता है। यह ग्रन्थ ३५१५ श्लोक - परिमाण है। विधिमार्ग खरतरगच्छ का नामान्तर है । इस कृति में खरतरगच्छ के अनुयायियों के विधि-विधान का निर्देश है। यह रचना प्रायः गद्य में है। आदि के पद्य में यह कहा गया है कि इस ग्रन्थ में श्रावकों एवं साधुओं की सामाचारी का वर्णन है । अन्त में सोलह पद्यों की प्रशस्ति है । इसके आदि के छः पद्यों में प्रस्तुत कृति के ४१ द्वारों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिनके नाम इस प्रकार हैं
प्रथम प्रकरण में- सम्यक्त्वारोपण की विधि बताई गई है। द्वितीय प्रकरण में- परिग्रह के परिमाण की विधि कही गई है। तृतीय प्रकरण में- सामायिक - आरोपण की विधि वर्णित है। चौथे प्रकरण में- सामायिक लेने और पारने की विधि का वर्णन है। पांचवें प्रकरण में- उपधान-निक्षेपण की विधि दर्शित की गई है। छठवें प्रकरण में- उपधान - सामाचारी प्रवेदित की गई है। सातवें प्रकरण में- उपधान की विधि दर्शित की गई है।
आठवें प्रकरण में- मालारोपण की विधि प्रज्ञप्त की गई है।
नौवें प्रकरण में- पूर्वाचार्यकृत उपधान, प्रतिष्ठा - पंचाशक का उल्लेख है ।
दसवें प्रकरण में- पौषध की विधि कही गई है।
ग्यारहवें प्रकरण में- दैवसिक-प्रतिक्रमण की विधि का वर्णन है ।
बारहवें प्रकरण में- पाक्षिक-प्रतिक्रमण की विधि निर्दिष्ट की गई है।
तेरहवें प्रकरण में- रात्रिक-प्रतिक्रमण की विधि का प्रवेदन किया गया है।
चौदहवें प्रकरण में तप - विधि उल्लेखित है।
पन्द्रहवें प्रकरण में- नंदीरचना की विधि बताई गई है।
विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, सं.: विनयसागर, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, पुर्नमुद्रण २०००.
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