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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
२०. उपस्थापन-विधि
इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन दीक्षित मुनि को महाव्रतों का आरोपण करना तथा साधुओं की मंडली में प्रवेश देना है। इससे पूर्व मुनि मात्र सामायिक-चारित्रधारी ही होता है तथा उसे साधुओं की मंडली में प्रवेश भी नहीं दिया जाता है। वह काल भी एक प्रकार का परीक्षणकाल होता है। इस संस्कार से युक्त होकर ही वह पंचमहाव्रतधारी होकर साधुओं की सप्त मंडलियों में प्रवेश की अनुमति को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में, मुनिसंघ का स्थायी सदस्य बनता है। इसके अतिरिक्त इस संस्कार का प्रयोजन “सांसारिक-व्यवहार का पूर्णतः परित्याग कर सांसारिक-जीवन के विकल्पों का वर्जन करना भी है।"६० वैदिक एवं दिगम्बर-परम्परा में हमें इस संस्कार का पृथक् से उल्लेख नहीं मिलता है। वहाँ प्रव्रज्या एवं उपस्थापना में अंतर नहीं किया जाता है। २१. योगोद्वहन-विधि
___ योगोद्वहन-संस्कार का मुख्य प्रयोजन मन, वचन एवं कायारूप त्रिविध योगों का ऊर्चीकरण करना है, क्योंकि इसके बिना व्यक्ति न तो सम्यक् रूप से चारित्र का पालन ही कर सकता है और न ही सम्यक् प्रकार से आगम के वचनों को ग्रहण कर सकता है। इन दोनों ही गुणों के अभाव में वह आगमों के अध्ययन के अयोग्य हो जाता है। जो इन गुणों से युक्त होता है, वह आगम-वांचन का अधिकारी होता है। आचारदिनकर में भी कहा गया है- “शुक्ल चारित्र वाले मुनिजन ही वाचना के योग्य होते हैं।"६१
इस संस्कार के माध्यम से मुनि मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निग्रह करके आगमों के अध्ययन करने के योग्य बनता है। वैदिक एवं दिगम्बर-परम्परा में हमें इस प्रकार के संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में शास्त्रों के अध्ययन हेतु मौनाध्ययनवृत्तित्व-क्रिया का उल्लेख मिलता है, किन्तु वहाँ हमें इस प्रकार के विधि-विधानों का उल्लेख नहीं मिलता
१६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ' आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. 'आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु.- डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५४, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००.
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