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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
१८. क्षुल्लक - विधि
आचारदिनकर के अनुसार “ इस संस्कार का प्रयोजन प्रव्रज्या से पूर्व व्यक्ति की योग्यता का परीक्षण करना है । ६ किसी भी नियम को आजीवन हेतु ग्रहण करते समय उसका पूर्व परीक्षण किया जाना अत्यन्त आवश्यक है । व्यवहार में भी हम देखते हैं कि जब हम मटकी खरीदने जाते हैं, तो उसे दस बार ठोक कर, टकोरा देकर लेते हैं। इस तरह यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि यह मटकी जल रखने के योग्य है या नहीं, या कहीं से फूटी हुई तो नहीं है। इसी प्रकार पंचमहाव्रतों एवं छठवें रात्रिभोजन - विरमण - व्रत का आरोपण करने से पूर्व उसका इस संस्कार के माध्यम से परीक्षण किया जाता है कि वह गृहीत व्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से कर पाएगा या नहीं। दिगम्बर - परम्परा में दीक्षाद्य - क्रिया के रूप में यह संस्कार किया जाता है। वहाँ इस संस्कार का प्रयोजन प्रव्रज्या से पूर्व गृहत्याग करना है। वैदिक - परम्परा में यद्यपि इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु वहाँ वानप्रस्थ नामक जो संस्कार किया जाता है, उसकी तुलना हम इस संस्कार से कर सकते हैं।
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१६. प्रव्रज्या - विधि
आचारदिनकर के अनुसार “इस संस्कार का प्रयोजन सामायिक चारित्र का ग्रहण करना है।”* सामायिक का अर्थ है - समभाव की साधना । इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति समभाव की साधना करता है तथा इन्द्रिय एवं मन को बाह्यजगत् से हटाकर अन्तरजगत् में लगाता है, वह अपनी कषाय - वृत्तियों या रागद्वेष का दृष्टा बनकर उनके निराकरण की साधना करता है। इस संस्कार का प्रयोजन मुनिदीक्षा के योग्य व्यक्तियों का परीक्षण करना भी है, ताकि वे महाव्रतों का निर्वाह सम्यक् प्रकार से कर सकें। इसके साथ ही इस संस्कार का उद्देश्य व्यक्ति को सब प्रकार के सांसारिक दायित्वों से मुक्त करना भी है। वैदिक-परम्परा में सन्यासाश्रम का ग्रहण भी कुछ इन्हीं प्रयोजन से अभिभूत होकर किया जाता है। दिगम्बर - परम्परा में भी इस संस्कार का प्रयोजन दिगम्बर- मुनिव्रत की दीक्षा ग्रहण करना है।
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*દ્ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु. डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व- अड़तीसवाँ, पृ. २५३, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००.
१५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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