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वर्धमानसरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
२२. वाचनाग्रहण-विधि
इस संस्कार का प्रयोजन विधिपूर्वक गुरु से वाचना ग्रहण करना, अर्थात् आगम का अध्ययन करना है,"६३ क्योंकि अविधिपूर्वक प्राप्त किया गया ज्ञान कभी लाभदायक नहीं होता है। विधिपूर्वक ग्रहण किया गया ज्ञान ही सदा फलदायी होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु के समक्ष विनयावनत होकर ज्ञान प्राप्त किया जाता है। दूसरे, शाब्दिक-ज्ञान की अपेक्षा गुरुमुख से प्राप्त किया गया अनुभवमूलक ज्ञान ही व्यक्ति के विकास में सहायक बनता है। इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन विधिपूर्वक गुरुमुख से ज्ञान प्राप्त करना है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में हमें प्रायः इस प्रकार के संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। २३. वाचनानुज्ञा-विधि
___ आचारदिनकर के अनुसार “इस संस्कार का प्रयोजन योग्य मुनि को आचार्यपद प्रदान किए बिना वाचनादान, अर्थात् शिष्यों को अध्ययन कराने की अनुमति प्रदान करना है।" इस संस्कार के माध्यम से मुनि को अपने आश्रित शिष्यों को शास्त्राध्ययन करवाने का दायित्व सौंपा जाता है, चूँकि व्यक्ति को जब तक किसी कार्य का दायित्व नहीं सौंपा जाता है, तब तक वह उस कार्य को भली प्रकार से नहीं कर पाता है, अतः व्यक्ति को दायित्व प्रदान करने तथा उससे सम्बन्धित अधिकार प्रदान करने के उद्देश्य से यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी वाचनाचार्य की नियुक्ति इसी प्रयोजन से की जाती है। २४. उपाध्याय-पदस्थापन-विधि
जैन-परम्परा में मुनियों के लिए शास्त्राध्ययन के साथ ही द्वादशांगी का अध्ययन करना भी एक आवश्यक क्रिया है, लेकिन द्वादशांगी का अध्ययन किसके पास किया जाए? यह एक महत्वपूर्ण विषय है। क्योंकि जिनवचन के सारभूत द्वादशांगी का सम्यक् ज्ञान वगैर योग्यता प्राप्त किए कोई व्यक्ति नहीं करवा सकता, इसलिए द्वादशांगी का अध्ययन करवाने के लिए किसी योग्य मुनि की नियुक्ति की जाना आवश्यक है, जो अपने आश्रित शिष्यों को अनुशासित करके द्वादशांगी का अध्ययन करवा सके। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी उपाध्याय की नियुक्ति शास्त्राध्ययन के प्रयोजन से की जाती है। वैदिक-परम्परा के संन्यासाश्रम में हमें इस प्रकार की व्यवस्था देखने को नहीं मिलती, वैसे उनके यहाँ भी उपाध्याय का पद होता है।
५५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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