Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
पुरुकुत्स इक्ष्वाकु था । अतः इक्षाकु परम्परा मूलतः पुरुराजाओंकी एक परम्परा थी । उत्तर इक्ष्वाकुओं का सम्बन्ध अयोध्यासे था (वै० इं०. जि०१, पृ० ७५ ) ।
पुरुओंके सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात यह है कि शतपथ ब्राह्मणमें ( ६, ८-१-१४ ) उन्हें असुर राक्षस बतलाया है । पणि
१६
ऋग्वेद में दासों और दस्युओं के साथ परिणयोंका भी उल्लेख आयके शत्रुरूपमें प्रायः मिलता है । यद्यपि वे धनिक और ऐश्वर्य सम्पन्न थे, किन्तु न तो वैदिक देवताओंकी पूजा करते थे और न पुरोहितों को दक्षिणा देते थे । सन्भवतः इसीलिए वे तीव्र घृणाके पात्र समझे जाते थे । ऋग्वेदमें उन्हें स्वार्थी, यज्ञ न करनेवाला, विरोधी भाषाभाषी, भेड़ियेकी तरह लालची, कंजूस दास और दस्यु बतलाया है । कुछ ऋचाओं में पणियोंका चित्रण दैत्योंके रूपमें मिलता है। वे देवोंकी गायें चुरा लेते थे, वर्षा नहीं होने देते थे ।
पणि लोग वैदिक देवता इन्द्रको नहीं मानते थे । ऋग्वेद १०- १०८ में इन पाणियोंके साथ इन्द्रकी दूती सरमाका सम्बाद है । जब पाणि लोग वृहस्पतिकी गायें पकड़कर ले गये तो इन्द्रने सरमा नामक दूतीको उनका पता लगानेके लिए भेजा । सरमाने पता लगाकर पणियोंसे कहा - इन्द्रने गायें माँगी हैं, उन्हें लौटा दो । तब पणियोंने पूछा- सरमे ! जिस इन्द्रकी तू दूती है वह कैसा है, और उसकी सेना कैसी है ? इससे यह स्पष्ट होता है कि पणि लोग इन्द्रसे अपरिचित थे । सम्भवतया इसीसे उन्हें 'अनीन्द्र' कहा है ।
१. १, ३३–३, ८३ - २, १५१-९, १८०-७, ४-२८-७, ५-३४५, ७, ६-१३-३, ८-६४-२, १०-६-६ आदि । २. १-३२-११, २-२४ ६, ४-५८-४, ६-४४-२२, ७-९-२, १०-६७-६ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org