Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा. इ० - पूर्व पीठिका
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मंत्रकारको इनका पता था । ये दोनों नदियाँ सप्तसिन्धवसे बाहर थीं। आजकल हिन्दुओं में गंगा और यमुनाका बहुत महत्त्व है किन्तु वैदिक काल में यह बात नहीं थी । उन दिनों सिन्धु और सरस्वतीका ही यशोगान होता था । उन्होंके तटपर यकी वस्तियाँ थीं ( ० आ०, पृ० ३८ ) । ऋग्वेद की ऋचाओं का बहुभाग भी सरस्वती के तटपर रचा गया प्रतीत होता है । यह दो अम्बाला से दक्षिण में बहती थी ।
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ऋग्वेद विध्य पर्वतका और नर्मदाका उल्लेख नहीं है, इससे सहज ही यह अनुमान होता है कि आर्योंने तब तक दक्षिण का परिचय प्राप्त नहीं किया था । ऋग्वेदमें सिंहका भी निर्देश नहीं है, जो बंगाल के जंगलोंमें पाया जाता है। चावलका निर्देश भी नहीं है, जब कि बाद के संहिताग्रन्थों में उसका निर्देश पाया जाता है ।
जातियाँ ( कबीले )
वैदिक आर्य भारतके जिस भागसे परिचित थे, वह भाग विभिन्न जातियोंमें विभाजित था, और प्रत्येक जातिका शासक एक राजा था । ऋग्वेदमें दस राजाओंके एक प्रसिद्ध युद्धका वर्णन है । यह युद्ध भरतों और उत्तर पश्चिमकी जातियोंके बीच में हुआ था । भरतोंका राजा सुदास था। पहले उसका पुरोहित विश्वामित्र था जिसकी संरक्षकतामें भरत लोग अपने शत्रुओंसे सफलता पूर्वक लड़े थे । किन्तु बादको सुदासने विश्वामित्रके स्थान पर वशिष्ठको अपना पुरोहित बनाया । सम्भवतः इसका कारण यह था कि वशिष्ठ उच्च ब्राह्मण था । तबसे दोनों पुरोहितों में विरोधका लम्बा प्रकरण चलता रहा । विश्वामित्रने बदला लेनेके लिये भरतोंके विरुद्ध दस राजाओं में मेल करा दिया ।
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