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त्रिविध दुःख
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यद्यपि कानून के मार्ग से धर्म समता - प्रचारका विरोधी नहीं है, फिर भी उसका ज़ोर आत्म- शुद्धिपर है । क्योंकि कानूनके बलपर जिस समताका प्रचार किया जाता है वह अस्थिर होती है और सिर्फ बहिलाओं को दूर कर पाती है। लोगोंकी तृष्णा शान्त नहीं होती; अवसर मिलने पर वे मनमाना भोग करते हैं । उनमें वह उदार दृष्टि नहीं रहती, जिससे मनुष्य त्यागमें सुखका अनुभव करता है । हाँ, कुछ न होनेसे कुछ अच्छा' इस उक्तिके अनुसार जहाँ आत्म-शुद्धिके संयमका यथायोग्य प्रचार न हो सकता हो, वहाँ कानूनसे काम लिया जाय; परन्तु यह कानूनी संयम जब आत्मिक संयम के रूप में परिणत हो जाय तभी सच्चा सुख प्राप्त होगा। क्योंकि इसमें वे लोग भी सुखी होंगे, जो प्राप्त हुई अधिक सामग्रीका त्याग करेंगे, अथवा अधिक सामग्रीको प्राप्त करनेकी शक्ति रहते हुए भी अधिक सामग्रीको प्राप्त करने की चेष्टा न करेंगे । इससे संघर्ष और अशान्ति रुकेगी ।
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दूसरा संयम प्राणि-संयम है । इसमें दूसरे प्राणियोंको दुःख देनेका निषेध किया गया है। यह संयम तो बिलकुल स्पष्ट रूपमें दु:ख निरोधक है । आजतककी अधिकांश सरकारोंने इसी संयमके एक बहुत स्थूल और संकुचित भागको पालन करानेका काम किया है । पशु-पक्षियोंके विषयमें इस संयमका पालन बहुत कम हुआ है और इन्द्रिय-संयमकी तरफ तो सरकारोंका ध्यान नहींके बराबर गया है । परन्तु आज लोगोंको इन्द्रिय-संयमकी उपयोगिता समझमें आने लगी है। क्योंकि यह बात स्पष्ट हो गई है कि जबतक समर्थ लोग इन्द्रिय-संयमका पालन न करेंगे या उनसे पालन न कराया जायगा, तब तक निर्बलोंको पेटभर भोजन मिलना और प्रकृति प्रदत्त