Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 340
________________ ३२६ जैनधर्म-मीमांसा का यहाँपर कुछ विवेचन किया गया है । सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्ज्ञान और थोड़ा बहुत सम्यक्चारित्र भी हो जाता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें, प्राणकी तरह काम करता है । इसके न होनेपर ज्ञान-चारित्र मृतकके समान हैं। सम्यग्दर्शनका दूसरा नाम सम्यक्त्व भी है जिसका अर्थ 'सचाई' है । ज्ञान और चारित्रमें जो सचाई है अर्थात् कल्याणकारकता है वही सम्यक्त्व है । सचाईके बिना ज्ञान-चारित्रका कुछ मूल्य नहीं है । सचाईसे वे सब मूल्यवान् हैं । समन्तभद्रने सम्यक्त्वके विषयमें बहुत ही अच्छा कहा है कि सम्यक्त्वके विना ज्ञान और चारित्र (सच्चे ) न पैदा हो सकते हैं, न रह सकते हैं, न बढ़ सकते हैं, न फल दे सकते हैं; जिस प्रकार कि बीजके अभावमें वृक्ष न पैदा हो सकता है, न ठहर सकता है, न बढ़ सकता है, न फल दे सकता है। ___ सच पूछा जाय तो सम्यक्त्वकी पूर्तिके लिये ज्ञान और चारित्र हैं । इसीलिये साधारण सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा अरहंतके सम्यग्दर्शनको उत्कृष्ट कहा है । इससे मालूम होता है कि ज्ञान और चारित्र. से सम्यक्त्वकी वृद्धि होती है और पूर्णज्ञान और पूर्णचरित्र होने पर सम्यक्त्व भी पूर्ण होता है। उस समय उसे 'परमावगाढ़ सम्यत्क्व' कहते हैं । परन्तु स्पष्टताके लिये उसका विवेचन अलग नाम देकर किया जाता है इसलिये यहाँ भी किया गया है। १--विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाऽभावे तरोरिव ।।

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