Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 338
________________ ३२४ जैनधर्ममीमांसा जो देवत्व की ओर बढ़ रहे हैं, अथवा कल्याणमागम हमसे आगे हैं, वे गुरु हैं | कल्याणमार्गको बतलानेवाले वचन शास्त्र हैं। शास्त्र किसी खास पुस्तकका नाम नहीं है, न उसका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय से है । इन 'सब बातोंका संक्षिप्त विवेचन अमूढदृष्टि अंगके विवेचन में आ गया है । प्रश्न – ' तत्त्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन हैं इस प्रचलित परिभाषा पर भी आपने उपेक्षा क्या की ? ; उत्तर - सात तत्त्वों का विवेचन दार्शनिक क्षेत्रकी चर्चा है । तत्त्वार्थश्रद्धान-रूप लक्षणसे चित्त दार्शनिक क्षेत्रकी तरफ चला जाता है । परन्तु दर्शन और धर्ममें बहुत अन्तर है । कल्याणमार्ग - पर श्रद्धा कर लेनेपर सात तत्त्वोंपर श्रद्धा की आवश्यकता नहीं रहती और कल्याणमार्गपर श्रद्धा न करनेपर सात तत्त्वोंके जाननेसे भी सम्यक्त्व नहीं होता । जैनधर्मके अनुसार सात तत्त्वोंका उपदेश तीर्थरोंने दिया है, परन्तु जब यहाँ कोई तीर्थङ्कर नहीं हुआ था तब भी सम्यग्दृष्टि तो थे ही । कुलकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि * थे । पशु भी सम्यग्दृष्टि होते हैं । इन सबको सात तत्त्वोंका पंडित मानना केवल क्लिष्ट कल्पना है अथवा जातिस्मरण, अवधिज्ञान आदिसे इन्हें तत्त्वज्ञ मानना भी अस्वाभाविक है । हाँ, सात तत्त्वके प्रचलित विवेचनको न जानकर भी या विश्वास न करके भी सम्यग्दृष्टिमें सात तत्त्वकी सामान्य मान्यता होना आवश्यक है । प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, इसलिये उसे ' सुख ' ( = मोक्ष ) पर विश्वास करना आवश्यक है। इसके लिये 'दुःखके कारणों को रोक देने' į * वरदाणदो विदेहे बद्धणराऊ य खइयसंदिट्ठी ; इह खत्तियकुलजादा केइजाइन्भरा ओही || ७९४ ॥ -तिलोयसार । · -

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