Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 336
________________ ३२२ जैनधर्म-मीमांसा कर्तव्याकर्तव्यकी बहुत-सी गुत्थियाँ केवल चर्चासे नहीं सुलझती अथवा सुलझती भी हैं तो लोग विश्वास नहीं करते। इसलिये, कथनके अनुसार, अपने जीवनको आदर्श बनाना बहुत बड़ी भारी प्रभावना है । जो अपने जीवनको सफल बनाकर बतला जाते हैं वे संसारके बड़े भारी प्रभावक हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं । ये अंग सुखी रहनेकी कला सिखाते हैं तथा संसारमें सुखकी वृद्धि भी करते हैं, इसलिये कल्याणमार्गके अंग हैं। सम्यक्त्वका स्वरूप अनिर्वचनीय होनेपर भी उसकी तरफ़ अनेक प्रकारसे संकेत किया जा सकता है । इसलिये यहाँपर हमने कुछ स्पष्टतासे कथन किया है। सम्यग्दर्शनको हम दर्शनाचारसे ही ठीक ठीक जान सकते हैं इसलिये सम्यक्त्वके निर्णयके लिये यहाँ दर्शनाचारका निरूपण किया जाता है। प्रश्न-साधारण जैन-जनता यह समझती है कि सच्चे देव-शास्त्रगुरुका विश्वास करना सम्यग्दर्शन है परन्तु आपने सम्यग्दर्शनके इस विस्तृत विवेचनमें देव-शास्त्र-गुरुका नाम भी न लिया ! क्या सम्यग्दृष्टिको सच्चे देव-शास्त्र-गुरुकी आवश्यकता नहीं होती ? उत्तर-देव-शास्त्र-गुरुका विश्वास सम्यग्दर्शनका परम्परा-कारण है; परंतु उसे निश्चय या व्यवहार सम्यग्दर्शन नहीं कह सकते । देव-शास्त्रगुरुके विश्वाससे कल्याणमार्गके प्राप्त होनेकी आशा रहती है, इसलिये देव-शास्त्र-गुरुपर विश्वास करना भी उचित है; फिर भी उसको इतना महत्त्व नहीं दिया जा सकता । अमूददृष्टि-अंगके विवेचनमें इसका कुछ विवेचन कर दिया गया है। सम्यग्दृष्टि किसी व्यक्ति-विशेषको देव नहीं मानता । वास्तवमें जो

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