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कैवल्य और धर्मप्रचार
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मनुष्यों को देव मान लिया गया है । जैनधर्म तो देवागमन आदिको जरा भी महत्त्व नहीं देता, यह बात मैं पहिले लिख चुका हूँ । हाँ, भक्तोंका हृदय तो सभी जगह एक सरीखा रहता है इसलिए जैनधर्ममें भी ऐसे वर्णन आये हैं ।
परन्तु ऐसी घटनाओंको धर्ममें स्थान देनेसे इन घटनाओंके समान वह धर्म भी अविश्वसनीय हो जाता है । और जब हम इन घटनाओंको भगवान महावीर के मुँहसे कहला देते हैं तब तो जैनधर्मके ऊपर बड़ा अत्याचार करते हैं, उसकी वैज्ञानिकताको मिटा देना चाहते हैं । देवगति आदिके विषयमें मैं आगे लिखूँगा, जहाँ इन सब बातोंका समन्वय हो जायगा ।
कहा जा सकता है कि ' ये लोग इतने बड़े विद्वान् थे फिर उनको इतनी ज़रा-ज़रा-सी बातें भी क्यों नहीं मालूम थीं ? ' केशी - गौतम संवादको पढ़ करके भी कोई कोई ऐसी शंका करेंगे 'कि ऐसी छोटी छोटी शंकाएँ इतने बड़े बड़े विद्वानोंको कैसे हो सकती हैं ? इसलिए क्यों न इन सब बातोंको मिथ्या मान लिया जाय ? ऐसी छोटी छोटी बातों का उत्तर तो आज एक प्रवेशिकाका विद्यार्थी भी दे सकता है ' । इस आक्षेपका उत्तर चार तरह से दिया जा सकता है ।
(१) प्रवेशिका और तीर्थके विषय जुदे जुदे नहीं होते, परन्तु प्रश्नकी गम्भीरता महत्त्व होता है । प्रमाणका लक्षण प्रवेशिकाके विद्यार्थीको भी पढ़ाया जाता है और तीर्थके विद्यार्थीको भी पढ़ाया जाता है परन्तु दोनोंमें अन्तर है । मैट्रिकके विषय एम० ए० में भी पढ़ाये जाते हैं परन्तु दोनोंमें महान अन्तर है ।
( २ ) आज जिन बातोंको हम सरल समझते हैं एक दिन के