Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 319
________________ दर्शनाचार के आठ अङ्ग ३०५ उपगूहन या उपबृंहण कहलायगा । ठीक इसी तरहसे कल्याणमार्गका उपबृंहण या उपगूहन करना चाहिये । साम्प्रदायिकता तथा अन्धश्रद्धाके कारण बहुत से लोग उपगूहन अंगका दुरुपयोग या दुरर्थ करते हैं । वे निन्दनीय कार्योंको छुपाने को उपगूहन कहते हैं । परन्तु इसका फल बहुत भयङ्कर और उल्टा होता है । इससे उपबृंहण तो बिलकुल नहीं होता किन्तु असत्यभापण और मायाचार से अधःपतन होता है । साथ ही दुराचारकी वृद्धि होती है क्योंकि बहुतसे धूर्तलोग इस आशासे वेषकी ओट में अनाचार करते रहते हैं कि उनके दोष समाजकी तरफसे छुपाये जायेंगे । इस प्रकार वे निर्भय होकर अनाचारका ताण्डव करते हैं । इसलिये उपगूहन अंगमें पापको छुपानेकी जरूरत नहीं है किन्तु उसके प्रतीकारकी जरूरत है । 1 दुराचारियोंके, धर्मकी ओटमें होनेवाले, पापोंको छुपानेका एक दुष्परिणाम यह होता है कि लोग निश्चितरूपमें धमकी निन्दा करने लगते हैं । यदि हम पापको न छुपावें और खुल्लमखुल्ला उसकी निंदा करें या विरोध करें तो लोग यही कहेंगे कि इन लोगोंमें पापी तो हैं परन्तु वहाँ उनकी गुजर नहीं है । इनका समाज विवेकी है । परन्तु यदि हम पापको छुपायेंगे तो इसका अर्थ यह होगा कि यह समाज पापीका पक्ष लेती है इसलिये इसकी बातका कुछ विश्वास नहीं करना चाहिये । पहिले समय में इस बातका पूरा खयाल रक्खा जाता था कि धर्मकी ओटमें कोई पापी पाप न करने पावे । ग्यारह अंगके ज्ञाता भव्यसेनमुनिका एक श्रावकने इसलिये खूब तिरस्कार किया था कि उनका २०

Loading...

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346