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जैनधर्म-मीमांसा
करता है । समन्तभद्रकी परिभाषा में तो ऐसा विकृत अंश है नहीं, परंतु अगर ऐसी विकृत परिभाषाएँ मिल जायँ तो उन्हें जैनधर्मकी परिभाषाएँ. न समझकर साम्प्रदायिक कालकी विकृत परिभाषाएँ मानना चाहिये ।
प्रश्न - वात्सल्यका स्वरूप ठीक ठीक समझमें आ जानेपर भी यह अंग अनुचित मालूम होता है । सम्यग्दृष्टिका तो जगत् कुटुम्ब है । वह धर्मात्माओं पर जिस प्रकार प्रेम करता है उसी प्रकार पापियोंपर दया करता है । प्रेम जैसे वात्सल्य है वैसे दया भी वात्सल्य है ।
उत्तर- - प्रेम और दयासे वात्सल्यमें कुछ अन्तर है । वात्सल्य प्रेम और दयाका कुछ सघन रूप है । हम प्राणिमात्रपर दया और प्रेम करें तो उसका व्यावहारिकरूप कुछ उथला होगा, जब कि वात्सल्यका रूप सघन होता है । अगर हम किसी नगर में घूमने निकलें तो हम हर एक आदमीसे कुशल- समाचार पूछते हुए न जायँगे. किन्तु अगर मार्ग में हमारा कोई निकट सम्बन्धी मिलेगा तो दो मिनिट खड़े होकर उससे बात अवश्य कर लेंगे । साधारण प्राणीके साथ जो हमारा प्रेम है और निकटसम्बन्धी के साथ जो हमारा प्रेम है, उसका अन्तर हमें ऐसे अवसरपर स्पष्ट मालूम होगा । इसी प्रकार -सम्यग्दृष्टिको, विश्व के प्राणिमात्र से प्रेम होनेपर भी, कल्याणमार्ग के पथिक : जगद्धितैषियोंसे प्रेम अधिक होगा । स्वाभाविक अवस्था में सबके साथ एक-सा प्रेम होना चाहिये, परन्तु जो मनुष्य कल्याणकी जितनी अधिक वृद्धि करता है उसके विषयमें हमारा प्रेम उतना ही अधिक बढ़ना चाहिये । मतलब यह कि साधारण मनुष्य के प्रति हमारा जितना कर्तव्य है परोपकारीके प्रति उससे उतना ही अधिक है । इस प्रकारके धार्मिक वात्सल्यसे हम लोगोंको, धार्मिक बननेके लिये,
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