Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 331
________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग सकता है और साम्प्रदायिकताके विष न होने पर कोई सम्प्रदाय बुरा नहीं होता। हाँ, सम्प्रदायका व्यावहारिक रूप जितना विशाल रहे उतना ही अच्छा है। प्रश्न—जैनशास्त्रोंमें वात्सल्यका जो लक्षण लिखा है वह साम्प्रदायिक है। समन्तभद्र आदिका लक्षण भी संकुचित है। उत्तर-समन्तभद्रने कहा है कि अपने यूथके * लोगोंसे निष्कपट प्रेम करना वात्सल्य है। यूथ अर्थात् समूह अनेक तरहके होते. हैं । सत्यवादियोंका, ब्रह्मचारियोंका, भी यूथ होता है, गुणोंको लेकर भी यूथ शब्दका व्यवहार है । सम्यग्दृष्टिके लिए, जो कि कल्याणमार्गी है, जगत्के सभी कल्याणमार्गी अपने यूथके हैं । इसलिये समन्तभद्रके लक्षणमें यूथ शब्द सम्प्रदायपोषक नहीं है । दूसरी बात. यह है कि अगर किसी वाक्यका कल्याणकारी और अकल्याणकारी दोनों तरहका अर्थ निकलता हो तो उसमें कल्याणकारी अर्थात् समुचित अर्थ + लेना चाहिये। मतलब यह है कि हमें शब्दोंका गुलाम नहीं, किन्तु शब्द जिस सत्यके लिये हैं उस सत्यका गुलाम, होना चाहिये । तीसरी बात यह है कि जब कोई भी धर्म सम्प्रदायका रूप धारण कर लेता है तब उसकी सारी परिभाषाएँ धार्मिकरूप छोड़कर साम्प्रदायिकरूप धारण कर लेती हैं। परन्तु विवेकी ऐसी परिभाषाओंके विकृत अंशको दूर करके तथ्यांशको ग्रहण * स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथाऽपेतकैतवा । प्रतिपत्तियथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते । रत्नकरण्ड श्रा० । + अस्थगईअ उ तेसि वियंजणं जाणओ कुणइ । सन्मतिप्रकरण २-१८ । अर्थात् शाता पुरुष अर्थकी संगतिके अनुसार सूत्रकी व्याख्या करता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346