Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 329
________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग ३१५ wwwwwwwww. तो. 'वसुधैव कुटुम्बकम् ' ( समस्त जगत् कुटुम्ब है । ) की भावना ही रहती है। एक कुटुम्बके मनुष्योंमें गुण, स्वभाब आदिकी कुछ समानता पाई जाती है । कल्याणमार्ग सम्यग्दृष्टिका स्वभाव बन जाता है इस लिये वही उसके लिये कुटुम्बीपनकी शर्त हो जाती है । वह किसी जातिमें, किसी देशमें, किसी सम्प्रदायमें, कद नहीं होता। जो कल्याणमार्गपर चलता है, वहीं उसका कुटुम्बी है । लौकिक कुटुम्बियोंकी अपेक्षा वह उनसे अधिक प्रेम करता है। इस प्रकारके 'प्रेमसे कल्याणमार्गका प्रचार होता है, धर्म और सुखका सम्बन्ध निकट और स्पष्ट बनता है। प्रश्न-'कल्याणमार्गियोंसे प्रेम करना ' इसका अर्थ ही दूसरोंसे प्रेम न करना है, परन्तु यह तो एक प्रकारकी सङ्कचितता है। यह भी एक प्रकारका जातिभेद है । सम्यग्दृष्टिमें अगर इतनी भी उदारता नहीं आई तो क्या आया ? , उत्तर-मनुष्यजातिमें ऐसे भेदोंकी कल्पना न करना चाहिये जो अमिट हों । राष्ट्रीय तथा जातीय भेद, जिनका सम्बन्ध जन्मसे है, नष्ट कर देना चाहिये क्योंक इससे समाजके, जविन-भरके लिये, टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं । परन्तु सजन-दुर्जन, परोपकारीस्वार्थी आदि भेद् जीवनब्यापी और अमिट नहीं हैं । कल्याणमार्गको, जो कि जगत्के कल्याणके लिये अनिवार्य है, ग्रहण करनेका प्रत्येकको अधिकार है; भले ही वह स्त्री हो या पुरुष, मनुष्य हो या पशु, आर्य हो या अनार्य । समभाव'का मतलब अपने स्वार्थको जगतके स्वार्थमें मिला देना है, सज्जनता और दुर्जनतामें अभेद करना

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