Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 317
________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग ३०३ तरह साधारण मनुष्य बनकर आवे तो कोई आपत्ति नहीं है । इस प्रकार विवेकेसे काम लेकर सम्यग्दृष्टि गुरुमूढ़तासे बचता है। ___ मूढ़ताओंके और भी बहुतसे भेद हो सकेंगे परन्तु सारांश यह है कि कल्याणपथमें साक्षात् या परम्परा-बाधा डालनेवाली कोई भी मूढ़ता सम्यग्दृष्टिमें नहीं होती । यही उसका अमूढदृष्टित्व अंग है। उपबृंहण या उपगृहन-अज्ञानियोंकी कृति आदिसे अगर सन्मार्गका निंदा होती हो तो उसे दूर करना, अर्थात् सन्मार्गको कलंकित न होने देना, और कल्याणमार्गमें स्थित पुरुषकी प्रशंसा करना, उपबृंहण या उपगृहन * अङ्ग है । जो विवेकी हैं वे तो अपने विवेकसे सन्मार्गकी खोज कर लेते हैं परन्तु साधारण जनतामें इतना विवेक नहीं होता। वह व्यक्तियोंसे धर्मका अच्छा बुरापन जानती है । अगर मैं जैन हूँ और मेरा आचरण बुरा है तो साधारण जनता मेरी बुराईको जैनधर्मकी बुराई समझ लेती है। धर्मपालकके आचरणका प्रभाव धर्मपर अर्थात् धर्मके नामपर पड़ता है। इसलिये सम्यग्दृष्टिका यह काम होता है कि वह धर्मकी निन्दाको दूर करनेका प्रयत्न करे, अथवा इस प्रकारकी धर्म-निन्दाको छुपा दे । धर्मकी निन्दाको छुपा देनेका यह अर्थ नहीं है कि वह झूठ बोलकर घटनाओंके अस्तित्वको छुपा दे । अगर किसी धर्मात्मा कहलानेवाले भाईसे कोई कलंकित करनेवाला काम हो गया है तो ___ * उपगूहन शब्द, गुह संवरणे ( ढंकना) धातुसे बना है। 'धर्मकी निन्दाको ढंक देना' इसका अर्थ होता है । ' उप' उपसर्ग लाग जानेसे इसका अर्थ आलिंगन हो जाता है जैसे-'तरङ्गहस्तैरुपगृहतीव' रघु० १४-६३ । यह आलिंगन अर्थ भी ठीक है क्योंकि अशानियोंके द्वारा ज्यों ज्यों धर्मकी निन्दा होती है त्यों त्यों सम्यग्दृष्टि उसका अधिक अधिक आलिंगन करता है ।

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