Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 315
________________ दर्शनाचार के आठ अङ्ग ३०१ देखी क्रियाएँ करता है । उसका आत्मोत्कर्ष नहीं होता । जो निदानवाला है वह भी कल्याणपथपर स्थिर नहीं है । आगामी विषयभोगोंकी लालसा रखना निदान है । जो विषयोंकी प्राप्तिके लिये विषयोंका. त्याग कर रहा है, उसका त्याग सच्चा नहीं है । विषय अगर बुरी, चीज है तो भविष्य के लिये उसकी इच्छा क्यों करना चाहिये ? और विषय अगर अच्छी चीज़ है तो उसका अभी त्याग क्यों करना चाहिये ? निदानमें जो विषयकी लालसा होती है उसमें उचितअनुचित, न्याय्य - अन्याय्यका विचार नहीं रहता । कल्याणमार्गपर चलते हुए जो और जितने विषय भोगे जा सकते हैं वह कोई पाप नहीं हैं क्योंकि उनमें दूसरोंके सुखोंका विचार रहता है । परन्तु निदान में यह विवेक नहीं होता। ऐसा निदानी वास्तवमें व्रती नहीं होता । इन तीन दोषोंसे रहित व्रती होता है । गुरुमें ये तीनों दोष न होना चाहिये । जिस मनुष्यको हम गुरु बनायें उसकी निःशल्यताका हमें निश्चय कर लेना चाहिये । 1 कुछ लोग कहते हैं कि जिसको हम गुरु बनाते हैं वह अगर हमसे कुछ अच्छा है तो गुरु है । यह ठीक है, परन्तु इस विषय में दो बातोंका विचार करना चाहिये । पहिली बात तो यह कि अच्छापनका कारण बाह्य तप या वेष न मानना चाहिये । दूसरी बा यह कि जितना अच्छापन हो उतना ही अच्छा मानना चाहिये । नकली सोनेको नकली सोनेके भाव खरीदने में कुछ दोष नहीं है, परन्तु असली सोनेके भाव ख़रीदने में ठगाई है । उस जगह यह कहकर सन्तोष नहीं किया जा सकता कि चलो, पीतलसे तो अच्छा है ! नकली सोना पीतलसे अच्छा है, इसलिये वह सोने के भावका

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