Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 313
________________ दर्शनाचार के आठ अङ्ग 1 गये थे । केवली होने के बाद भी वे बहुत समय तक घर में रहे । इस लिये मुनिवेषमें हो या गृहस्थवेपमें, सब जगहे गुरुत्व रह सकता है । वेषका कुछ भी महत्त्व नहीं है। विवेकी गृहस्थ, मुनिसे अधिक पूज्य है और विवेकी मुनि गृहस्थसे अधिक पूज्य है । दोनों अगर विवेक हों या दोनो अविवेकी हों तो कोई किसी से पूज्य नहीं है । वेषैकान्तसे साम्प्रदायिक कट्टरता बढ़ती है । इससे उस वेषमें न रहने वाले सच्चे गुरुओंको हम छोड़ जाते हैं और स्वार्थके लिये वेषको अङ्गीकार करने वाले धूर्तों और मूर्खोको हम गुरु समझ लेते हैं । उनके दुर्गुणोंका व्यक्त और अव्यक्तरूपमें हमारे ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता है । सच्चे गुरुओंकी खोजके लिये, और कुगुरुओं तथा अगुरुओंको छुपने का मौका न मिले इसके लिये, वेत्रका एकान्त छोड़ देना चाहिये । दूसरी बात यह है कि बहुतसे चालक आदमी बाह्य तपसे अपनी माया फैलाते हैं और भोले लोगोको धोखा देते हैं । कोई एक पैसे खड़ा होता है, कोई सिरके बल खड़ा होता है, इसी प्रकार कोई बहुतसी आड़ी टेढ़ी आसने लगाता है परन्तु इससे कोई गुरू नहीं हो जाता ।. ऐसी आसनोंवाला आदमी सरकसके खेलकी तरह मनोविनोदकी वस्तु हो सकता है परन्तु गुरु नहीं हो सकता । जैनधर्ममें कायक्लेशको तप कहा है परन्तु बाह्य ( बाहिरी, दिखावटी ) तप कहा है । यह बास्तवमें तप नहीं है किन्तु, अन्तरंग तपमें सहायक होनेसे, उपचार से तप है । अन्तरंग तपके बिना इससे किसीका महत्त्व नहीं बढ़ता । अन्तरंग तपके विना भी करोड़ों आदमी इस तपको कर २९९ १ वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणाम् । गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः || अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते । विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥

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