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जैनधर्म-मीमांसा
सकते हैं, इसलिये इस तपका मूल्य और भी कम है । इसका साक्षात् फल यह है कि इससे कष्टसहिष्णुता बढ़ती है। परन्तु कष्टसहिष्णुता हमारी अपेक्षा पशुओंमें अधिक होती है फिर भी वे तपस्वी नहीं कहलाते । इसलिये बाह्य तपको भी गुरुत्वकी कसौटी न बनाना चाहिये।
ऐसी विद्याओंसे भी किसीको गुरु न मानना चाहिये जो मनुष्यका कुछ उपकार तो करती हैं परन्तु जीवनको कल्याणमार्गकी तरफ़ नहीं ले जातीं । ज्योतिष, वैद्यक तथा अर्थोपयोगी विद्याओंसे हम किसीको गुणी कहें; उससे अगर वह परोपकार करता हो तो उसे परोपकारी मानें । परन्तु उससे वह गुरु नहीं हो जाता। गुरुत्व तो उसके आत्मोत्कर्ष, कल्याणकर भावनाओं आदिपर निर्भर है।
प्रथम अध्यायमें जो कल्याणमार्ग बतलाया गया है उस मार्गमें जो हमसे आगे बढ़ा है वह गुरु है। उसमें भी तीन बातोंका विचार रखना चाहिये । कल्याणमार्गस्थ मनुष्य वह कार्य माया, मिथ्यात्व, और निदानके वश हाकर तो नहीं कर रहा है ? ये तीन शल्ये कहलाती हैं । इनका त्याग प्रत्येक धर्मात्मा या व्रती व्यक्तिको अवश्य करना चाहिये । इन शल्योंके त्यागके बिना कोई व्रती या धर्मात्मा नहीं कहला सकता। __ जो मनुष्य व्रतादि तो करता है परन्तु मायाचारसे करता है, अर्थात् मनसे व्रत तो नहीं करना चाहता किन्तु दूसरोंके सामने अपनेको व्रती साबित करना चाहता है, वह बाहरसे कितना भी व्रत करे वह व्रती नहीं कहला सकता । जो मिथ्यात्वी है उसकी क्रियाएँ भी निष्फल हैं । वह क्रियाके मर्मको ही नहीं समझता, सिर्फ देखा