Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 322
________________ ३०८ जैनधर्म-मीमांसा उपबृंहण स्वीकार किया है । इसका स्पष्ट अभिप्राय यही था कि धर्मको निन्दासे बचाने के लिये दोषाच्छादनकी बात छोड़ दी जाय और इसका अर्थ सिर्फ आत्मोत्कर्ष किया जाय । हाँ, स्पष्टताके लिये किसी किसी आचार्यने दोनों नामोंका समन्वयात्मक उल्लेख या संकेत किया है, जिसका मतलब यही है कि उपगूहनके साथ उपबृंहण होना ही चाहिये । इस अङ्गके पालनके लिये निम्नलिखित बातोंका खयाल रखना चाहिये ( क ) सन्मार्गकी निन्दाका अगर किसीसे कार्य हो जाय तो - करना उपबृंहण है | चारित्रसार में भी ऐसे ही शब्दों में इस अंगकी परिभाषा लिखी गई है और नाम भी उपबृंहण दिया गया है । पञ्चाध्यायी और लाटीसंहितामें भी उपबृंहण नाम है । उसका लक्षण किया है उपबृंहणमत्रास्ति गुणः सम्यग्यगात्मनः । लक्षणादात्मशक्तीनामवश्यं बृंहणादिह || अर्थात् आत्मशक्तियोंका बढ़ाना उपबृंहण है जो कि सम्यग्दृष्टिका एक गुण है। x धर्मोभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥ २७ ॥ पुरुषार्थसिद्धमुपाय | निरभिमानता आदिकी भावनाओंसे धर्मकी वृद्धि करना चाहिये और उस वृद्धिके लिये दूसरेके दोषोंको ढँकना चाहिये । इस श्लोक में उपगूहन और उपबृंहणका संकेत है । परन्तु इसमें विशेष बात यह है कि उपगूहनके लिये उपबृंहण नहीं है किन्तु उपबृंहण के लिये उपगूहन है। इसका अर्थ यह हुआ कि दोषाच्छादन धर्मोन्नतिका कारण होना चाहिये । ईर्षा द्वेषसे किसीके दोष प्रगट करना, भूलचूकसे किसीसे कोई अपराध हो गया झे और वह उसका पश्चात्ताप करता हो फिर भी दोष प्रकट करना, आदि ठीक नहीं हैं । ऐसी जगहपर उपगूहन ही उपयुक्त है । 1 सकलकीर्तिके धर्मप्रश्नोत्तर में भी दोनों नाम मिलते हैं ।

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