________________
२९२
जैनधर्म-मीमांसा
कसौटीपर कसता है तब मानता है। सम्यग्दृष्टि एकान्तका विरोधी होता है इसलिये वह एकान्तवादपर स्थित सम्प्रदायोंमें कैद नहीं होता । वह तो सत्यका पुजारी होता है, वह सत्य चाहे जहाँ हो । अगर वह साम्प्रदायिक वातावरणमें पैदा होता है तो भी वह अपने सम्प्रदायका होनेसे ही किसी शास्त्रको शास्त्र नहीं मानता और न परसम्प्रदायका होनेसे उसे कुशास्त्र ही मानता है। उसकी कसौटी 'सत्य' होती है । अमुक भाषा वगैरहको भी वह शास्त्रकी कसौटी नहीं मानता । जो पुस्तक अपने सम्प्रदायकी हो, संस्कृत, प्राकृत, लेटिन आदि किसी प्राचीन भाषामें बनी हो, बनानेवाला मर गया हो, उस पुस्तककी बहुतसे आदमी विवेकरहित होकर प्रमाण मानने लगते हैं; परन्तु यह भी शास्त्रमूढ़ता है क्योंकि इससे सच्चे मार्गका निर्णय नहीं होता। __ प्रश्न-शास्त्रोंको माननेके लिये अगर इस प्रकार तर्क-वितर्क किया जायगा तो शास्त्रोंको माननेकी आवश्यकता ही न रह जायगी, क्योंकि जो बातें हम जिस प्रमाणसे जाँचेंगे उसीसे हम स्वयं उन बातोंको मान लेंगे । हम शास्त्रोंकी परीक्षा तभी कर सकते हैं जब उसमें कही हुई बातोंकी परीक्षा कर सकें। ऐसी हालतमें हम वस्तु-तत्त्वके साथ ही निर्णयका सीधा सम्बन्ध क्यों न जोड़ें ? बीचमें शास्त्रोंकी क्या आवश्यकता है ? शास्त्रोंकी परीक्षा करनेवाला तो शास्त्रोंका निर्माण भी कर सकेगा ? और जो निर्माण न कर सके वह परीक्षा भी नहीं कर सकता । इस तरह परीक्षकके लिये शास्त्र अनावश्यक है और अपरीक्षकको आप शास्त्रमूढ़ मानते हो, तब शास्त्र किसके लिये है ?