Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 305
________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग २९१ पुण्य काम नहीं आता । तुम अगर अपने निरपराध पड़ौसीको गालियाँ देते हो और उस पापको दूर करनेके लिये भगवानका गुणगान करते हो तो इससे वह पाप दूर न हो जायगा । उसे दूर करने के लिये तुम्हें पड़ौसीसे सच्चे दिलसे क्षमा माँगना पड़ेगी और भविष्य में फिर ऐसा दुर्व्यवहार न करनेके लिये दृढ़ निश्चय करना पड़ेगा । यह प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त है और प्रायश्चित्त एक महान् तप है । इस तपसे गालियोंके पापकी शक्ति नष्ट होगी । जैसा रोग हो वैसी चिकित्सा और जहाँ रोग हो वहाँ ही चिकित्सा उचित है । इसी प्रकार जैसा पाप हो वैसा ही उसका उपाय होना चाहिये । देवपूजा मिथ्यात्त्व नामक पापको दूर कर सकती है न कि असातावेदनीयको । पूजा जिस देवकी होगी उसके गुणोंका अगर सच्चे दिलसे विचार किया जायगा तो उस गुणका हमें लाभ होगा और उतनी सद्बुद्धि हमें प्राप्त होगी । देवपूजाका फल इतना ही है कि हमें सद्बुद्धि मिले । अगर सद्बुद्धि मिली और उसके अनुसार काम किया गया तो वह अन्य अनेक धर्मोका कारण होगा । परन्तु यह उसका परम्परा -फल है जो कि बादके अन्य अनेक कारणोंकी अपेक्षा रखता है । देवपूजा आदि उचित है परन्तु उसका जो फल है वही मानना चाहिये और वास्तविक उपायोंपर उपेक्षा न करना चाहिये। कुछका कुछ -इलाज करना मूढ़ता है । बुरे ग्रहोंकी शान्तिके लिये मंत्र जाप कराना आदि भी लोकमूढ़ता है। मतलब यह कि कार्य कारणभावको ठीक ठीक न समझकर अन्धविश्वाससे धर्मके नामपर जो जो क्रियाएँ की जाती हैं। वे सब लोकमूढ़तामें शामिल हैं । सम्यग्दृष्टिमें यह मूढ़ता नहीं होती । शास्त्रमूढ़ता भी सम्यग्दृष्टिमें नहीं होती । शास्त्रको वह विवेककी

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