________________
२९६
जैनधर्म-मीमांसा
रीक्षकता हमारा आदर्श नहीं है । मिध्यादृष्टि भले ही अपरीक्षक रहें परन्तु सम्यक्त्वीको तो परीक्षक होना ही चाहिये ।
प्रश्न – जिन शास्त्रोंकी कृपासे हमें ज्ञान मिला उन्हीं की परीक्षा करना एक तरह की कृतघ्नता है । ' हमारी माता व्यभिचारिणी है या सती' इस प्रकारकी परीक्षाके समान सरस्वती माताकी परीक्षा करना निर्लज्जता है, माताका अपमान है ।
-
उत्तर — 'दोषा वाच्या गुरोरपि' इस नीति के अनुसार दोष तो गुरुके भी कहना चाहिये । शास्त्र में अगर कोई दोष है तो उसका कहना बुरा नहीं है । प्रह्लाद आदिके कथानकोंसे यह बात सिद्ध है ।
1
दूसरी बात यह है कि 'कृतज्ञता' और 'कृतघ्नता' शब्दोंका व्यवहार एक प्राणीके दूसरे प्राणी के साथ होनेवाले व्यवहारपर निर्भर है । शास्त्र कोई प्राणी नहीं है जिसके प्रति कृतघ्न्नता कही जाय । दुःखका कारण होनेसे कृतघ्नता पाप है । शास्त्र में दुःखकी संभावना ही नहीं है तब कृतघ्नता कैसी ? ऐसी वस्तुओंका जो उपयोग है उस उपयोगसे कृतघ्नता नहीं आती । एक अनाजका व्यापारी अनाजके व्यापारसे श्रीमान् बनता है और अनाजको खाता भी है । उससे यह नहीं कहा जा सकता कि जिस अनाजके बलपर वह श्रीमान् बना है उसीको खा जाता है, इसलिये कृतघ्न है ।
तीसरी बात यह है कि 'कृत' के बाद 'कृतज्ञता ' या ' कृतघ्नता' होती है । अनाज जब खाया जाय तभी उसका उपकार है इसलिये उसको खा लेना ही कृतघ्नता नहीं कहीं जा सकती । शास्त्र सन्मार्ग दिखलाये, यही उसका उपकार है । अगर उसमें असत्य है, सन्मार्गप्रदर्शकता नहीं है तो उस असत्यको दूर करना कृतघ्नता नहीं है बल्कि उसकी