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जैनधर्म-मीमांसा
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किया होगा और यह तो निश्चित है कि उन लोगोंकी मंशा जैनशासनको पवित्र और प्रभावशाली बनाये रखनेकी थी। इस तरह उनकी भावना भले ही पवित्र हो परन्तु साम्प्रदायिकता अच्छी नहीं थी । और आज तो उससे कुछ लाभ नहीं है। पवित्र जैनधर्मको हम तभी समझ सकते हैं जब हम साम्प्रदायिकताका त्याग कर दें।
जैनधर्ममें यों तो अनेक सम्प्रदाय हैं परन्तु दिगम्बर-श्वेताम्बर ये दोनों सम्प्रदाय ही मुख्य हैं । इनके समन्वय हो जानेसे साम्प्रदायिकताका बहुत-कुछ विनाश शीघ्र हो सकता है।
मतभेद और उपसम्प्रदाय जैनधर्मके उपर्युक्त दो सम्प्रदाय ही हुए हों सो बात नहीं है। म० महावीरके समयसे आज तक छोटे छोटे मतभेदोंको लेकर अनेक उपसम्प्रदाय हुए हैं। आवश्यकतावश लोगोंने कुछ परिवर्तन करना चाहा और प्राचीन परम्पराने उसका विरोध किया इससे उपसम्प्रदाय बनते गये। समन्वय-दृष्टि एक तरहसे नष्ट ही हो गई थी इसलिये मतभेदोंने सम्प्रदायभेदोंका रूप पकड़ लिया । यहाँ मैं कतिपय मतभेदों और उपसम्प्रदायोंका परिचय दूंगा जिससे मालूम होगा कि जैनधर्ममें समय-समयपर लोगोंको परिवर्तनकी आवश्यकता मालूम हुई है । हमें उन मतभेदों और उपसम्प्रदायोंसे न तो राग करना चाहिए, न द्वेष करना चाहिए, किन्तु उन्हें असली जैनधर्मकी खोजकी सामग्री बना लेना चाहिये । ये उपसम्प्रदाय अनुदारता और भोलेपनके परिणाम हैं। आज तो वे उपेक्षणीय ही हैं।