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जैनधर्म-मीमांसा
( क ) किसी वर्गको अछूत ठहराना पाप है । जिन लोगोंको अछूत कहा जाता है उनके विषय में अछूतता के कारणोंपर विचार नहीं किया जाता । अछूतताके दो कारण हैं - एक तो आचारशुद्धिक लिये दुःसंगतिका बचाव, दूसरा स्वच्छता की रक्षाका भाव । अछूतोंके विषय में पहिला कारण ठीक नहीं है क्योंकि जिस मद्यमांस भक्षण आदिसे बचने के लिये अछूतताका समर्थन किया जाता है वह अस्पृश्योंकी तरह स्पृश्योंमें भी है । बंगाल, उड़ीसा, मैथिल आदि प्रान्तोंक ब्राह्मण तक आमतौरपर मद्य - मांससवा होते हैं । अन्य प्रान्तोंमें भी ऐसे उच्चवर्णियोंकी संख्या कम नहीं है जो मद्यमांससेवी हैं । ये मांसभक्षी अछूत नहीं समझे जाते और मजा यह है कि ये मांसभक्षी भी अछूत कहलानेवालोंको उतना ही अछूत समझते हैं जितना कि अन्य शाकभोजी समझते हैं इसलिये मांसभक्षण आदि आचारकी खराबियोंसे बचने के लिये अछूतता नहीं है परन्तु अगर इसलिये होती तो भी उचित न कहलाती क्योंकि मांसभक्षीका स्पर्श करनेमे उसका दोप नहीं लगता, न उससे पाँच पापोंमेंस कोई पाप होता है । दृढ़-हृदय या सेवाभावी मनुष्योंको तो उनकी संगतिमें रहनेपर भी कुछ नुकसान नहीं है किन्तु जो कमजोर हैं उन्हें मांसभक्षी लोगोंकी कौटुम्बिक संगतिका त्याग करना चाहिये; अगर कोई व्यभिचारी, जुवारी आदि है तो उसके साथ घूमने आदिका त्याग करना चाहिये परन्तु स्पर्शके त्यागकी तो किसीको आवश्यकता ही नहीं है; और सदाचारी हृढ़-हृदय के लिये संगतिके त्यागकी भी जरूरत नहीं है । जो कमजोर तथा पापभीरु हैं उन्हें सिर्फ संगतिका त्याग करना चाहिये । किसीको छ लेनेका, सफरमें थोड़े समय के लिये साथ हो जानेका
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