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दर्शनाचार के आठ अङ्ग
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तथा पारस्परिक सहायता या सेवाका, त्याग करनेकी तो कमजोरोंको भी आवश्यकता नहीं है । तात्पर्य यह है कि किस मनुष्यसे किस रूपमें बचना इसका विवेक प्रत्येक मनुष्यको होना चाहिये । स्पर्श कर लेना कोई पाप नहीं है । हाँ, वह संगति बुरी है जिसे हम सह न सकते हों अर्थात् जिसके बड़ा होकर हम पापकी तरफ खिंचनेसे बच न सकते हों । इसलिये दुराचार से बचनेके लिये अछूतताका समर्थन कदापि नहीं किया जा सकता ।
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स्वच्छताकी रक्षा के लिये भी इस स्थायी अछूतताकी आवश्यकता नहीं है। बीमारी आदि के निमित्त मिलने पर प्रत्येक मनुष्य अछूत बनना है । हमारी मा - बहिनों को तथा हमें भी अनेक बार घृणित चीज़ोंकी सफ़ाई करनी पड़ती है । डॉक्टरोंका धन्धा अछूतोंके धन्धे से बहुत अन्तर नहीं रखता -- ये सब भी अछूत हैं; इसलिये हमें किसी जाति विशेषको अछूत क्यों मानना चाहिये ?
स्वच्छता के लिये या रोगादिसे बचनेके लिये अगर हम किसीको अछूत माने तो सिर्फ उतने समय के लिये ही मानें जितने समय वे अछूतताका काम करते हों । स्नानादि से शुद्धि करनेके बाद भी उन्हें अछूत मानना मिथ्यात्व है । साथ ही जो व्यक्ति अछूतताका का करे वही अछूत है न कि उसके सारे कुटुम्बी । तात्पर्य यह है कि स्वच्छताकी दृष्टिसे अगर हम अछूतताको माने तो किसी जातिको अछूत नहीं कह सकते, किसी व्यक्तिको सदा अछूत नहीं कह सकते; साथ ही थोड़े समयको उच्चवर्णियों को भी अछूत कह सकते हैं । इस प्रकारका विवेकपूर्ण शौचधर्म सम्यक्त्वके निर्विचिकित्सा अंगका पोषक ही है ।