Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ जैनधर्म-मीमांसा (ख) खानपानकी उत्तमताका जाति-पाँति से कोई सम्बन्ध नहीं है । भोज्य पदार्थमें चार प्रकारकी उत्तमता देखना चाहिये - प्रासुकता, स्वास्थ्यप्रदता, स्वच्छता और स्वादिष्टता । प्रत्येक जातिके भोजन में ये चारों गुण हो सकते हैं परन्तु शौचधर्मका विषैलारूप इन गुणोंपर दृष्टि नहीं रखने देता । वह मनुष्यको जातिमदांध बना देता है । ऐसा जातिमदांध अपनी जातिके बीमार तथा मलिन मनुष्यके हाथका भोजन कर लेगा परन्तु दूसरी जातिके नीरोग तथा स्वच्छ मनुष्य के हाथका भोजन न करेगा । किसी अज्ञातकुलशील मनुष्यके यहाँ, या ऐसे मनुष्य के यहाँ, जहाँ हमारे योग्य भोजन मिलनेका निश्चय नहीं है, भोजन न किया जाय तो यह बात किसी तरह जँचती है; परन्तु उस मनुष्यको अपने साथ खिलाने में या अपनी देखरेख में उससे भोजन तैयार करा लेने में क्या पाप है ? ऐसा भोजन तो प्रासुकता, स्वच्छता आदि हरएक दृष्टिसे उत्तम होता है, परन्तु शौचमूढ़ मनुष्य में इतना विवेक नहीं होता । ૨૮૦ प्रारम्भमें आजीविकाकी सुविधा के लिये चार जातियाँ बनाई गई थीं। पीछेसे वे वंशपरम्परा के लिये स्थिर हो गई। बाद में बेटीव्यवहार भी उन्हीं में सीमित हुआ और जिनने इस बेटीव्यवहार के नियमोंका भङ्ग किया उनकी जुदा-जुदी जातियाँ बन गई । इसके बाद तो खानपानके भी बन्धन मज़बूत हो गये तथा टिड्डी दलकी तरह हज़ारोंकी संख्यामें जातियाँ दिखलाई देने लगीं । अपनी ही जाति में रोटी-बेटी व्यवहार सीमित हो गया; दूसरी जातियोंमें भोजन करना अपराध माना जाने लगा । फलतः अपनी जातिको सर्वोच्च माननेकी भावना दृढ़ होती गई— यहाँ तक कि कौन-सी जाति ऊँच

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346