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जैनधर्म-मीमांसा
प्राण है । हम उनकी पर्याप्त मेवा नहीं कर सकते न उनसे पर्याप्त सेवा ले सकते हैं । हम घृणा करना सीखते हैं, अहंकारसे उन्मत्त हो जाते हैं और ईर्ष्या-द्वेपका साम्राज्य फैलाते हैं। भला ऐसी जगह सम्यक्त्व कैसे रह सकता है ? निर्विचिकित्सकता सम्यक्त्वकी एक मुख्य शर्त है; इसीलिये वह सम्यक्त्वका अंग मानी गई है । धर्मके फलमें अविश्वास न करना भी निर्विचिकित्सता है । इस रूप में भी सम्यक्त्वी इसका पालन करता है ।
अमृदृष्टत्व अंग - सम्यग्दृष्टिको कर्तव्य अकर्तव्यका विवेक होने से उसके सब काम सद्विचारपूर्वक होते हैं । लोकमूदता, शास्त्रमृढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमृढ़ता आदि अनेक प्रकारकी मृढ़ताओंसे वह रहित होता है । वह सुखके ठीक ठीक कारणोंको जानता है । इसलिये वह किसीके भुलाने में नहीं आता, अपने विवेकसे काम लेता है, रूढ़योंका गुलाम नहीं होता है ।
लोकमूढताका क्षेत्र विशाल है । आचार्य समन्तभद्रने कहा हैनदी या समुद्रों में स्नान करना, पत्थरोंका ढेर लगाना, पर्वतसे गिरना, अग्निमें जलकर मरना ( सतीप्रथा ), लोकमूढ़ता है । * ( ये कार्य धर्म समझकर किये जायँ तो ही लोकमूढ़ता हैं । )
जंगत् में धर्म के नामपर ऐसे बहुतसे कार्य होते रहे हैं, और थोड़े-बहुत अभी भी होते हैं, जिन कार्योंसे न तो करनेवालोंको कुछ सुख मिलता है और न दूसरोंको सुख मिलता है । जब उनसे कोई
* आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽद्विपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार २२ ।