________________
२७६
जैनधर्म-मीमांसा
शरीर के दोषोंको देखकर अगर हम सद्गुणीका अपमान करते हैं तो हम सद्गुणोंका अपमान करते हैं; और चूँकि सद्गुणी ही सुखके कारण हैं इसलिये सुखको कल्याणको नष्ट करते हैं ।
-
इसका यह अर्थ नहीं है कि सद्गुणीको स्वच्छतासे न रहना चाहिये, रोगर्का पर्वाह न करना चाहिये, या सद्गुणीके शरीर में कोई संक्रामक बीमारी हो तो दूसरे को उसमे अपना यथायोग्य बचाव न करना चाहिये । हर- एक आदमीको स्वच्छता से रहना चाहिये । वह शौक न करे परन्तु स्वच्छ रहे। वह रोगसे निर्भय रहे, परन्तु यथाशक्ति निरोगी रहने की कोशिश करे । नीरोग रहने में आत्मदया भी है और परया भी है । इसीप्रकार दूसरे व्यक्तिको चाहिये कि वह संक्रामक रोगीसे यथायोग्य बचाव रखते हुए भी उसकी यथाशक्ति सेवा करेसहायता करे ।
हमारा गुणानुराग जितना तीव्र होगा, गुणोंको उतना ही उत्तेजन मिलेगा । सौन्दर्य वगैरह से आकृष्ट होकर जो गुणानुराग बताया जाता है वह साधारण है । उसमें विश्वकल्याणकी भावना नहीं होती । वह सौन्दर्य वगैरह नष्ट हो जानेपर नष्ट हो जाता है । इसलिये हमारा गुणानुराग इतना प्रबल होना चाहिये कि शारीरिक असौन्दर्य, रोगवृद्धता, विकलाङ्गता आदि उसमें बाधा न डाल सकें । जो गुण विश्वकल्याण में साधक हैं उनको अधिक अधिक उत्तेजन देना
विश्वकल्याणके कार्य में सहायता देना है ।
विचिकित्सा या ग्लानि एक कषाय है, इसलिये पाप है । परन्तु हर - एक कषायका एक शुभरूप भी होता है । जब हम पापपर क्रोध करते हैं, तो क्रोध एक कषाय होनेपर भी वह शुभ हो जाता