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जैनधर्म-मीमांसा
कहनेका जो उद्देश्य है उसपर अविश्वास नहीं करता तो उसकी निःशंकता कलंकित नहीं होती। जैसे कोई राम-रावणकी कथाको यदि सत्य न माने परन्तु उस कथासे जो पातिव्रत्यकी और परस्त्रीहरणनिषेधकी शिक्षा मिलती है उसपर विश्वास रखे तो उसकी निःशंकता बाधित न होगी । इसी प्रकार कोई स्वर्ग-नरककी अमुक रचनापर विश्वास नहीं करता किन्तु पुण्य-पापके फलपर विश्वास रखता है तो उसकी निःशंकता दूषित नहीं है। इसी प्रकार अन्य शास्त्रोंकी बात है ।
विशेष जिज्ञासाकी दृष्टिसे प्रश्न करना या ग्खोज करना भी निःशकताका दोष नहीं है।
निःकांक्षता-असत्यकी सेवासे सुग्व न चाहना निःकांक्षता है । पहिले अध्यायमें कहा जा चुका है कि हमारा सुख समष्टिगत सुखके ऊपर अवलम्बित है । जो सुख दूसरोंके दुःखके ऊपर अवलम्बित है वह वास्तविक सुख नहीं है, न वह स्थायी हो सकता है । प्रथम अध्यायमें जो सुख बताया गया है उस सुखके सिवाय वह अन्य सुखोंकी कामना नहीं करता; और न उसके लिये न्यायकी हत्या करनेको तैयार होता है । दिगम्बर सम्प्रदायमें इसका लक्षण इस प्रकार किया गया है___ 'जो सुख दैवाधीन है, शीघ्र विनाशी है, जिसके बाँचमें दुःख है
और जो पापका कारण है उस सुखमें अरुचि या लापरवाही रखना निःकांक्षता है।' __यहाँ वैषयिक सुखके चार दोष बताये गये हैं। प्रारम्भके तीन दोषोंको हम किसी तरह दूर नहीं कर सकते किन्तु उनके असरसे अपनेको बचा सकते हैं। इसका उपाय है. समता, सहन